बनवा लब्वान्य्र (Benoît Le borgne) (उन्होंने भारत में रहते हुए में अपना उपनाम De Boigne में बदल दिया) का जन्म (८ मार्च १७५१ को शॉबेरी, फ्रांस में) एक ऐसे परिवार में हुआ था जो भूसेसे (fur) भरे जानवरों का कारोबार करता था। शॉबेरी में उनके परिवार की दुकान थी। अपने पिता की दुकान में शेर, हाथी, तेंदुए, बाघ आदि जंगली जानवरों की मूर्तियां इस नवजवान de Boigne के लिए बहुत आकर्षक थी। और जिन देशोंसे से ये सारे अद्भुत प्राणी आते है उस देशोंकी यात्रा करने की इच्छा उनके मन में भर गयी|
De Boigne ने सत्रह साल की उम्र में फ्रांसीसी राजा लुई पंद्रह (Louis XV) के आयरिश पलटन में एक साधारण सैनिक के रूप में अपने सैनिकी जीवन की शुरुआत क। यहीं पर उन्होंने सैन्य कौशल के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा का भी परिचय लिया। यह पलटन ज्यादातर आयरिश सैनिकों से बनी थी जो अंग्रेजों के विरोधी थे। १८८८ में २२ साल की उम्र में de Boigne ने रूसी-तुर्क युद्ध में रूसियों के तरफ़ से लड़ने के लिए ग्रीस में पारोस द्वीप पर गए। उनके दुर्भाग्य से रूस इस युद्ध में हार गया और तुर्कोंद्वारा वे पकड़े गये। उन्हें गुलाम के रूप में कॉन्स्टेंटिनोपल शहर में लाया गया। कुछ समय बाद जब उनके मालिक ने अंग्रेजी बोलने की उनकी क्षमता को पहचाना तो उन्होंने उसे एक अंग्रेजी व्यापारी लॉर्ड अल्जेर्नॉन पर्सी (Lord Algernon Percy) के साथ बातचीत करने के लिए नियुक्त किया। एक तुर्क द्वारा ग़ुलाम बनाया एक यूरोपीय देखके आश्चर्यचकित पर्सी ने de Boigne को मुक्त करने के लिए सभी आवश्यक प्रयास किये।
इसके बाद de Boigne ने ग्रीक द्वीपों पर पर्सी के लिए एक सहायक के नाते कुछ समय के लिए काम किया, और जब दोनों अंततः पारोस में पहुंचे तो उन्होंने वहां अपनी नौकरी छोड़ दी। इसके बाद वह तुर्की के समुद्र तट पर बसे शहर स्मिन्र (Smyrne) गए जहां उन्होंने भारत से आने वाले कई व्यापारियों से मुलाकात की। व्यापारियों ने उन्हें गोलकोंडा की असाधारण हीरों की खानों और सीलोन (श्रीलंका) की कीमती नीलम के बारे में बताया। और उन्होंने यह भी बताया कि कई भारतीय राजा अपने सैनिकों को संगठित करने और प्रशिक्षित करने के लिए यूरोपीय सैन्य अधिकारियों की तलाश कर रहे थे। उस दौरान कई यूरोपीय अधिकारियों ने अपने सैन्य अनुभव के बलबूते पर भारत में भाग्य आजमाया था। वह सब हथियार निर्माण, विशेष रूप से बंदूकों - तोफों के उत्पादन में साथ ही नई युद्ध नीतियों को लागू करने में माहिर थे|
इस सूचना से खुश होकर de Boigne के मन में अब अफगानिस्तान या कश्मीर से भारत तक जमीन का रास्ता खोजने का विचार बैठ गया। उन्होंने सिफारिशों के पत्र पाने के साथ-साथ वित्तीय सहायता पाने के लिए कैथरीन द्वितीय (Catherine II - रूस) सहित कई राजाओं और गणमान्य व्यक्तियों के साथ इस अभियान के विषय में चर्चा की। विशेष रूप से महारानी कैथरीन ने अफगानिस्तान हो कर जाने वाले इस अभियान के बदौलत वहा अपना प्रभाव बढ़ाने के इरादे से इस में विशेष रुचि ली| इस के जरिए शायद वह भारत में अंग्रेजों का मुकाबला भी कर पाती। De Boigne ने १७७७ में अपनी यात्रा शुरू की। लेकिन कुछ कठिन अनुभवों के बाद उन्होंने इस योजना को छोड़ने का फैसला किया। इसके बदले उन्होंने भारत पहुंचने के लिए समुद्री रास्ता अपनाने का फैसला किया। हालांकि मिस्र के आसपास उनका जहाज तूफान में फंस गया था। और इसमें उन्होंने सिफारिशों के मूल्यवान पत्र के साथ अपना सभी सामान खो दिया। चूंकि वापस लौटने की कोई संभावना नहीं थी इसलिए वह स्थानीय (मिस्र में) ब्रिटिश वाणिज्य दूतावास गए जहां उन्हें भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए जाकर काम करने की सलाह दी गई और इस संबंध में सिफारिश पत्र भी प्राप्त हुआ।
वह १७७८ में मद्रास आए थे। इस अनजान देश के लोगों के रीति-रिवाज देखकर वह हैरान रह गए। बाद में उन्होंने अपनी आजीविका के लिए तलवारबाजी (fencing) का पाठ पढ़ाना शुरू किया। आखिरकार उन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी की बटालियन की ट्रेनिंग का काम मिल गया। चार साल तक इसका अनुभव लेने के बाद उन्होंने भारत के अन्य क्षेत्रों में जाने का फैसला किया। इसके बाद वह गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स (Warren Hastings) से मिलने कलकत्ता गए। उन्होंने भारत और यूरोप के बीच भूमि मार्ग तलाशने के अपने सपने को दोहराया। वॉरेन हेस्टिंग्स ने उन्हें नवाब असद-उद-दौला (औंध रियासत के ब्रिटिश मैंडलिक) के लिए सिफारिश पत्र दिया था। इसके बाद de Boigne ने १७७८ में इस सफर की शुरुआत की। लखनऊ में नवाब से मुलाकात कर उन्होंने काबुल और कंधार के अपने भविष्य के दौरों के लिए सिफारिशों के पत्र और कुछ रसद भी प्राप्त कि। लखनऊ में अपने कुछ महीनों के दौरान उन्होंने हिंदी और फारसी सीखना शुरू कर दिया था। यहीं पर उन्होंने अपना नाम Leborgne बदलकर de Boigne कर दिया। उन्होंने समझा कि अंग्रेजों को उनके नाम में "R" का उच्चारण करने में कठिनाई होती थी।
De Boigne ने अपनी यात्रा फिर से शुरू की और वे दिल्ली गए| दिल्ली में उन्होंने मुगल बादशाह शाह आलम से मुलाकात की। हालांकि, इस दौरे के ठीक एक दिन बाद वहां के राजनीतिक हालात बदल गए और मराठा सेनापति महादजी शिंदे ने खुद को दिल्ली और आगरा प्रांतों का मुखिया घोषित कर दिया। इस प्रकार मुगल बादशाह शाह आलम केवल नाम से ही सम्राट बने रहे। इसका कारण यह है कि उस समय मुगल राजवंश इतना प्रभावी था कि उस साम्राज्य की शक्ति के विनाश के बावजूद किसी अन्य भारतीय राजा ने इसे बदलने की हिम्मत नहीं की।
इस बीच de Boigne ने यूरोपीय शैली की बटालियनों को प्रशिक्षित करने की खबर से प्रभावित होकर महादजी ने उनसे नए सिरे से संपर्क किया। इस बार उन्होंने शिंदे के यहां नौकरी स्वीकार की। उन्हें दो बटालियन के प्रशिक्षण की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इसमें १७०० सैनिक शामिल थे। आगरा में तोपखाना चलाने की जिम्मेदारी भी उनपर सौपी गई। १७८४-१७८८ के दौरान मराठा, मुगल, राजपूत और राठौड़ (मारवाड़/जोधपुर और बीकानेर के राजपूत) के बीच कई लड़ाइयां हुईं। इन सभी लड़ाइयों में de Boigne की प्रभावशाली भूमिका के कारण मराठों की जीत हुई। लेकिन इसके बाद de Boigne ने सिर्फ घुड़सवारों के बजाय १०००० सैनिकों के साथ, तौफ और बारूद से सज्ज एक मजबूत बटालियन बनाने का शिंदे के सामने प्रस्ताव रखा जिसे शिंदे ने अस्वीकार कर दिया। De Boigne ने इस इनकार के बाद अपना इस्तीफा दे दिया और वे वापस लखनऊ चले गए। यहां उन्होंने व्यापार कर काफी धन प्राप्त किया। और यहीं पर उन्होंने एक मुगल सूबेदार की बेटी नूर से शादी कर ली।
१७९० में मराठों को राजपूत, इस्माइल बेग (मुगल+ रोहिल्ला सेना), राठोड़ (बीकानेर और जयपुर राज्य) के बीच संयुक्त मोर्चे का सामना करना पड़ा। De Boigne द्वारा निर्मित शक्तिशाली पलटन की बदौलत मराठा सेना ने कई महत्वपूर्ण लड़ाइयां जीतीं। इस बहादुर सेना के उदय से ईस्ट इंडिया कंपनी भी डर गई थी। १७९० के छह महीनों में बेहद कठिन परिस्थितियों में, मराठा फौज ने १००००० सैनिकों की सेना को पराजित कर २०० ऊंटों, २०० बंदूकों, कई बाजारों और ५० हाथियों को जब्त किया। मराठा सेना ने १७ किलों पर कब्जा कर लिया। इस जीत ने de Boigne की सामाजिक, सैन्य और राजनीतिक स्थिति को और भी बढ़ा दिया। इस बीच उन्होंने अपनी जागीरी में आने वाले ताजमहल के जीर्णोद्धार का काम भी करवा लिया।
उत्तर में अपने चचेरे भाई की शानदार सफलता से ईर्ष्या करते हुए मध्य भारत के मराठों (पुणे के पेशवा) के साथ-साथ इंदौर के होल्कर ने इस्माइल बेग (मुगल) के साथ गठबंधन बनाया और उन्होंने de Boigne और महादजी के खिलाफ अभियान चलाया। De Boigne ने इस्माइल को हराकर उसे जेल में डाल दिया। उन्होंने होल्कर के खिलाफ भी लड़ाइयां जीतीं और इस तरह शिंदे के प्रभुत्व को रेखांकित किया। उनसे खुश होकर महादजी ने उन्हें और भी बड़ी जागीरी से पुरस्कृत किया। अब वह न केवल उनके एक भरोसेमंद सेनापति थे बल्कि उनके दाएं हाथ से भी जाने जाते थे। उन्होंने अब न सिर्फ अपनी जागीरी बल्कि उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत के पूरे शाही मामलों का काम-काज देखना भी शुरू कर दिया।
इस बीच अपनी सैन्य शक्ति और राजनीतिक प्रभुत्व से मशहूर बने शिंदे के कई दुश्मन पैदा हो गए हैं। साज़िशें और धोखाधड़ी भी बढ़ गयी। पेशवा से बातचीत के लिए पुणे बुलाए गए महादजी शिंदे नाना फडणवीस और होल्कर के जाल में फंस गए। शिंदे ने de Boigne से अपने बचाव के लिए और सेना भेजने की मांग की। और सेना आयी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। महादजी शिंदे को १२ फरवरी १७९४ को मार दिया गया। शिंदे की मौत के बाद de Boigne उत्तर और उत्तर पश्चिम हिन्दुस्तान के सम्राट बन सकते थे। लेकिन इसके बदले उन्होंने महादजी शिंदे के भतीजे और वारिस दौलत राव शिंदे के प्रति वफादार रहने का फैसला किया। De Boigne को अब तक एहसास हो गया था कि वहा की राजनीतिक स्थिति अब काफी बदल चुकी थी। बाद में दौलत राव शिंदे एक कमजोर प्रशासक के रूप में सामने आए।
१७९५ में भारत में १७ साल बिताने के बाद उनकी तबीयत खराब हो गई| इसके चलते de Boigne ने सेनापति के रूप में अपनी जिम्मेदारी छोड़ दी और इसके बजाय पियर क्विएर – पेरॉन (Pierre Cuillier-Perron) को प्रमुख के रूप में नियुक्त किया और अपनी यूरोप की वापसी की तैयारियां शुरू कर दी। अपने कार्यकाल के अंत में वह १००००० यूरोपीय शैली प्रशिक्षित सैनिकों के मुखिया थे| शिंदे की सेना यह भारतीयों की आखिरी सेना थी जिसने भारत में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। हालांकि यूरोप जाने से पहले उन्होंने अपनी ५०० सैनिकों की निजी सेना और सामान अंग्रेजों को बेच दिया।
यूरोप लौटने पर वह लंदन चले गए। उन्होंने ब्रिटिश नागरिकता ली और अपनी भारतीय पत्नी से वह अलग हो गए। वहां उन्होंने एक फ्रांसीसी लड़की आदलेद द ओस्मोन (Adélaïde d'Osmond) से शादी की। १८०२ में वह पेरिस आए और उन्होंने नेपोलियन बोनापार्ट (Napoléon Bonapart) से मुलाकात की। उस बैठक में नेपोलियन ने उनके सामने प्रस्ताव रखा कि वह फ्रांसीसी और रूसी सेनाओं का नेतृत्व करें, अफगानिस्तान के रास्ते भारत पहुंचें और अंग्रेजों से लड़ें। हालांकि तब तक de Boigne ५० साल के हो चुके थे और गंभीर डायरिया से पीड़ित थे| इसके चलते उन्होंने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया।
वह १८०७ में शॉबेरी लौटे और २१ जून १८३० को अपनी मृत्यु तक वहां रहे। अपनी मृत्यु से पहले, उन्होंने शॉबेरी के लिए कई सार्वजनिक कार्यों के लिए उदारता से अपनी संपत्ति दान की। ताकि इस शहर का भौतिक, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रों में विकास हो सके।
कैसी अद्भुत कहानी है ये, हैं ना? मैं महाराष्ट्र से हूं और अपनी शिक्षा मैं ऐसे समय में कर पाया, जब इतिहास की किताबें बिना किसी ज्यादा छेड़छाड़ के पढ़ी जा सकती थीं। और फिर भी मुझे और मेरे जैसे कई अन्य लोगों को सिखाया गया कि उत्तर और उत्तर-पश्चिमोत्तर भारत में मराठों का भाग्य केवल और केवल मराठों की ही बहादुरी की बदौलत था! हालांकि जहां तक मुझे याद है इन जीत में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद de Boigne के बारे में कही कुछ कहा नहीं गया! और मुझे शक है कि आज के फ्रांस में भी कितने लोग इस बहादुर के बारे में जानते हैं!
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