७ मई की रबींद्रनाथ टैगोर की जयंती के अवसर पर मैंने प्रसिद्ध पत्रकार Olivier DA LAGE के साथ उनकी उत्कृष्ट
पुस्तक "Nationalism (राष्ट्रवाद)" पर चर्चा की।
१९१३ में, टैगोर साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले गैर-यूरोपीय बने। हालाँकि, उनके राजनीतिक निबंध उनके प्रशंसकों के बीच भी कम जाने जाते हैं।
"राष्ट्रवाद" पुस्तक १९१६-१९१७ (पहला विश्व युद्ध काल) में उनकी जापान और
अमेरिका की यात्राएँ के दौरान दिये गये
व्याख्यानों का संकलन है।
इस पुस्तक में टैगोर पश्चिम
(यूरोप-अमेरिका) और पूर्व (एशिया) के बीच कुछ महत्वपूर्ण तुलनाएँ करते हैं।
यूरोप के बारे में, वे कहते हैं: "यूरोप
तब अत्यंत उदार है जब वह समस्त मानवता की ओर मुखातिब होती है; और वही यूरोप अत्यंत
दुष्ट हो जाती है जब वह केवल अपने स्वार्थ पर ध्यान देती है, अपनी समस्त शक्ति का
उपयोग मनुष्य की अनंत और शाश्वत प्रकृति के खिलाफ करते हुए।"
भारतीयों से वे कहते हैं: "भारत
में, मैं जानता हूँ कि हमारे शिक्षित समुदाय का एक बड़ा वर्ग इस अपमानजनक आरोप से
तंग आ चूका है कि वह एक समाज के रूप में अनिवार्य रूप से पिछड़ेपन का शिकार है, और इस तथ्य को गर्व का
विषय बनाने के लिए आत्म–प्रवंचना के सभी साधनों का उपयोग कर रहा है। परंतु यह गर्व
केवल शर्म का एक मुखौटा है — यह वास्तव में स्वयं में विश्वास नहीं करता ।"
Olivier DA LAGE हमें याद दिलाते हैं
कि टैगोर ने जापान को चेतावनी दी थी कि वह अपनी विनाशकारी और साम्राज्यवादी
प्रवृत्ति में पश्चिम की नकल न करे। आगे टैगोर कहते हैं: “इस देश (जापान) में
जिस चीज ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया है, वह यह है कि आपने
प्रकृति के रहस्यों को विश्लेषणात्मक ज्ञान से नहीं, बल्कि सहानुभूति से
जाना है। प्रकृति पर बाहर से हावी होना तो
सरल है, परंतु उसे प्रेम के ज़रिये अपना बना लेना ही सच्ची प्रतिभा का कार्य है।"
Olivier DA LAGE ने इस तथ्य पर भी
हमारा ध्यान आकर्षित किया कि टैगोर ने स्विट्जरलैंड के मॉडल, जहां तीन अलग-अलग भाषाई समूह सामंजस्यपूर्ण रूप से सह-अस्तित्व में थे (और आज
भी हैं!) और संभावित भारतीय
संघीय प्रतिरूप के बीच एक एहम समानता निकाली।
Video Link:
https://www.youtube.com/watch?v=lbSWVVahNEs&t=1s
टिप्पणी:
1) साक्षात्कार में एक साथ हिंदी और फ्रांसीसी उपशीर्षक हैं।
2) साक्षात्कार के आरंभ और अंत में संगीत वीडियो "गीत" हैवह मोर चित्तो"कलकत्ता यूथ क्वायर द्वारा गाया गया। मूल क्लिप को नीचे दिए गए पते पर देखा जा सकता है।
https://www.youtube.com/watch?v=F7me3ME4nes
अनुबंध: नमस्ते! मेरा नाम अनुबंध काटे है। मैं पेरिस स्थित इंजीनियर हूं और पिछले कुछ महीनों से मैंने साक्षात्कार लेना शुरू किया है। मैंने लेखकों से बात करना शुरू किया है, उन किताबों के बारे में जो मैं पढ़ता हूं और जो मुझे पसंद है। आज मुझे मशहूर पत्रकार Olivier DA LAGE (ओलिविए दा लाज) को अपने साथ पाकर बहुत खुशी हो रही है। आपका स्वागत है Olivier!
ओलिविए: नमस्ते! मुझे आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद।
अनुबंध: यह मेरी खुशकिस्मती है। वैसे Olivier DA LAGE के साथ, मेरा पहले एक साक्षात्कार हो चुका है जिसमे उनकी महत्वपूर्ण फ़्रांसिसी पुस्तक, "भारतीय और उनकी भाषाएँ" के संबंध में हमारे बीच एक दिलचस्प चर्चा का लंबा सत्र चला था। लेकिन आज मेरी उनके साथ वार्तालाप करने की एक खास वजह है। बात ये है कि ७ मई (२०२५) को रवीन्द्रनाथ टैगोर की जयंती है। और यह उनकी १६४ वीं जयंती है। टैगोर का जन्म ७ मई १८६१ को हुआ था। हमे ऐसा लगा की शायद इस दिन को मनाने का सबसे अच्छा तरीका एक वार्तालाप करके किया जाए और टैगोर के बारे में बात करें। उनकी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तकों में से एक "राष्ट्रवाद" का हमने इस तहत चुनाव किया। तो, यह वह पुस्तक है जिसके बारे में हम चर्चा करेंगे लेकिन उसके पहले मैं Olivier DA LAGE का परिचय देने के लिए कुछ पंक्तियाँ पढ़ूँगा। मेरे भारतीय दर्शकों के लिए, जो लोग शायद उंन्हे अभी तक नहीं जानते। तो, Olivier DA LAGE, Radio France Internationale (RFI) रेडियो फ्रांस इंटरनेशनल के लिए काम कर चुके है। और इस के अलावा, वह अंतर्राष्ट्रीय मामलों के संबंधों के विशेषज्ञ हैं। फिलहाल, वह IRIS (Institute de Relation Internationale et Stratégique) में एक शोधकर्ता हैं, जो पेरिस स्थित एक अंतर्राष्ट्रीय और सामरिक संबंध का संस्थान है। इसके अलावा वह भारत से संबंधित मामलों के विशेषज्ञ हैं। साथ ही अरबी देशोंके के भी। और वह काफी समय तक भारत में भी रहे हैं। ओलिविए क्या आप इस परिचय में और कुछ जोड़ना चाहेंगे?
ओलिविए: नहीं - नहीं.. मैं तो शरमा रहा हूँ! धन्यवाद, आप आगे बढ़ सकते हैं।
अनुबंध: लेकिन मैं इस दिशा में थोड़ा और आगे बढ़ूंगा क्योंकि ऐसी बहुत किताबें हैं जो आपने लिखीं है और मैं बस उनका नाम लूंगा, हालाँकि वे फ़्रांसिसी में हैं... एक है "L’INDE de À a Z" - भारत A से Z तक जिसे आपने Nina DA LAGE के साथ मिलकर लिखा था। फिर, "L’INDE: Désire de Puissance" - भारत: सत्ता की चाहत. उसके बाद, आपने "Bombay: D’un quartier à l’autre" - बम्बई: एक इलाके से दूसरे इलाके तक - एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक भी लिखी, फिर "L’INDE: Un géant fragile" - भारत: एक नाजुक शक्तिशाली और आपने "Le Rickshaw de Mr. SINGH" भी लिखी। यह आखरी पुस्तक एक उपन्यास है। तो, यह आपकी पुस्तकों का काफी व्यापक फलक है। वे कुल मिलाकर २० क़िताबे हैं।
अच्छा, तो जो मुझे आपके पास लाया है, इस सत्र में आपको शामिल करने के लिए वह इस कारण के लिए भी कि आपने टैगोर की किताब, “राष्ट्रवाद” को फ़्रांसिसी में पुनः प्रकाशित किया। और मेरा मानना है कि यह वर्ष २०२० में था, क्या यह सही है?
ओलिविए: हाँ।
अनुबंध: इसलिए, मैं चाहूंगा कि आप मेरे दर्शकों को बताए की इसके पीछे आपली क्या प्रेरणा थी, आपने इस पुस्तक को ही क्यों चुना? और यह सब कैसे हुआ?
ओलिविए: इसके कुछ साल पहले मैंने धार्मिक राष्ट्रवाद पर एक मोटी पुस्तक सह-लेखित और समन्वित की थी। वह मेरी पहल नहीं थी। लेकिन एक प्रकाशक जिन्होंने मुझसे संपर्क किया, उनके साथ मैंने पहले भी काम किया था और उन्होंने कहा कि तुम्हें ऐसा करना चाहिए। तो, सबसे पहले मैं थोड़ा आशंकित था क्योंकि मुझे नहीं पता था, मेरा मतलब है कि मुझे इस विषय की अधिक जानकारी नहीं थी। लेकिन फिर मैंने चुनौती लेने का फैसला किया और मैंने विभिन्न देशों के कई विशेषज्ञों से संपर्क किया और अंत में अनेक विशेष निबंधों की एक विशाल, मोटी किताब तैयार हुई। इसके अलावा मैंने इस किताब के लिए एक परिचय और निष्कर्ष लिखा। और धार्मिक राष्ट्रवाद के बारे में भारत पर एक अध्याय। कई वर्षों बाद, उसी प्रकाशक ने मुझसे संपर्क किया और कहा, देखिये, मुझे लगता है कि आपको टैगोर की यह छोटी सी किताब पढ़नी चाहिए , खासकर के आपका इसके पहले का काम भी इसीसे मिलता जुलता था। शायद आपको इस उत्कृष्ट कलाकृति के लिए एक प्रस्तुति भी लिखनी चाहिए।
तो, मैंने उस किताब के बारे में कभी सुना नहीं था। बेशक, मैं टैगोर के बारे में जनता था लेकिन यह किताब मेरे लिए बिल्कुल अनजान थी। तो, मैंने इसे पढ़ना शुरू किया, अंग्रेजी संस्करण में, जो उन्होंने मुझे भेजा था। मैंने सोचा कि यद्यपि यह काफी छोटी पुस्तक है, मेरा मतलब है कि यह अंग्रेजी संस्करण की किताब है जो उन्होंने मुझे दी थी। आप देख सकते हैं कि यह बहुत बड़ी नहीं है और मैंने निर्णय लिया कि यह एक बहुत अच्छा विचार है। तो, मुझे एक फ़्रांसिसी अनुवाद मिला जो १९२४ में प्रकाशित हुआ था। यह लगभग एक शताब्दी पहले की बात है। जिसका अर्थ है कि मैं उस अनुवाद का उपयोग कर सकता था, यह सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में था और मेरे कुछ भी लिखने से पहले, मैंने टैगोर (के साहित्य) मैंने गोता लगाने का फैसला किया। मैं निश्चित रूप से रवीन्द्रनाथ टैगोर को नाम से जानते था और मैंने कई फिल्में देखी थीं जो उनके कार्यों से प्रेरित थी। चूँकि सत्यजित रे फ़्रांस में काफ़ी प्रसिद्ध हैं, निःसंदेह.. लेकिन मुझे यह स्वीकार करना होगा कि मैंने इसके पहले टैगोर को कभी नहीं पढ़ा था। इसलिए, मैंने उनके कई उपन्यास पढ़ना शुरू किया, उनकी कविताएँ....मैंने उनका लिखा हुआ सब कुछ तो नहीं पढ़ा। ऐसा है, मेरा मतलब है कि इसमें तो लगभग मेरा पूरा जीवन लग गया होता! क्योंकि उन्होंने बहुत कुछ लिखा है। लेकिन फिर जिस बात ने मुझे चौंका दिया वह है की उनके उपन्यासों में, जो सच्चे उपन्यास हैं... मेरा मतलब है, इसे पढ़ना आनंददायक है... इनमे कथानक है, पात्र हैं... लेकिन इनमें हमेशा कुछ न कुछ विचार होता है जो कहानी के नीचे छिपा हुआ होता है... और जो मैंने पढ़ा था, यह उससे बिल्कुल मेल खाता था। राष्ट्रवाद के बारे में और संक्षेप में कहें तो... और मैं अपने पहले उत्तर के लिए वहीं रुकुंगा। टैगोर “राष्ट्रवाद” के प्रति बहुत सावधान हैं और यह हमें किस ओर ले जाता सकता है, उस खतरे के बारे में।
अनुबंध: हाँ, आपके इस प्रारंभिक परिचय से मैं कुछ विचार और मुद्दों को चुनना चाहूँगा और मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि भले ही मैं एक भारतीय हूँ... मैं था... मेरा मतलब है कि अब मैं एक फ़्रांसिसी - भारतीय हूं, मुझे सबसे पहले फ़्रांसिसी में यह “राष्ट्रवाद” पुस्तक पढ़ने का अवसर मिला, यहाँ...फ़्रांस में और जब मैं भारत में था तो मुझे इस किताब के बारे में पता नहीं था और यह शायद कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि मैं जिन लोगों को जानता हूं, जो काफी पढ़ते हैं और उनमें से अधिकांश जो भारत में हैं, वह भी नहीं जानते की टैगोर का राजनीतिक लेखन कितना महत्वपूर्ण था या आज भी है! तो, यह “राष्ट्रवाद” की पुस्तक, हालाँकि यह एक छोटी किताब है, जैसा आपने कहा, इसमें जो विचार हैं और उनकी संक्षिप्तता, उनकी सटीकता अद्भुत है! और इसमें यह सार्वभौमिकता / सर्वहितवाद / विश्ववाद है... जो समय से परे, सदियों से परे चला जाता है। हम बहुत सी पुस्तकों के बारे में ऐसा कह सकते हैं लेकिन अगर कोई सूची हो तो मैं इस किताब को बहुत ऊंची श्रेणी में रखूंगा।
मैं अपने दर्शकों को यह भी बताना चाहूंगा की अब ११ वर्षों से यूरोप में रहने के बाद, जिसमें फ्रांस में नौ साल... यहाँ मैंने फ्रांसीसी समाज के बारे में जो देखा, उसमे मुझें यहाँ के लोगोंमे पढ़ने के प्रति बेहद आकर्षण दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, और शायद, ओलिविए कहेंगे कि लेकिन यह आदत अब समय के साथ घट रही है लेकिन फिर भी, जब आप यहां मेट्रो लेते हैं, जब आप बाहर जाते है, आप देख सकते हैं कि लोग अभी भी पढ़ रहे हैं.. अपने मोबाइल के आकर्षण को दूर रख कर...और यह खासकर के पेरिस के बारे में अधिक विशेष है, मैं कहूँगा, मैंने इसे इतना (पढने के लिए प्यार) अन्य यूरोपीय शहरों में नहीं देखा।
ओलिविए: उस पर मैं यही कहूंगा की समय-समय पर मैं अपने पड़ोसी से जब मिलता हूं, या मेरे सामने खड़ा कोई व्यक्ति अगर किताब पढ़ रहा है तो मैं सिर्फ किताब का शीर्षक देखता हूं और समय-समय पर मैं जाकर वह किताब भी खरीद ले आता हूं!
अनुबंध: हा और कभी-कभी ये, किसी से बातचीत की शुरुआत करने का बहाना भी दे देता है! अजनबियों के साथ भी! यह बहुत अद्भुत है! और मैंने लोगों को चलते वक्त भी पढ़ते देखा है... वे उनके कार्यालयों में जा रहे हैं और चलते चलते अपनी किताब भी पढ़ रहे हैं! तो, यह एक बेहद खुबसूरत नजारा है।
तो मेरा पिछला सवाल था कि आपने यह किताब क्यों लिखी। लेकिन आपने इस पुस्तक का २० पन्ने का परिचय भी लिखा, तो आपके के लिए, क्या होंगी इस किताब की खास बातें? टैगोर के कौनसे विचार इस पुस्तक से आप कों भाएँ?
ओलिविए: शायद उससे पहले हमें याद रखना चाहिए कि यह किताब किस बारे में है और यह कब प्रकाशित हुई थी। वास्तव में, इसे एक किताब के रूप में रचित होना अपेक्षित नहीं था। १९१६ में टैगोर जापान गए और फिर अमेरिका गए। जापान और अमेरिका में उन्होंने तीन व्याख्यान दिये। जापान में एक और अमेरिका में दो. १९१६ प्रथम विश्व युद्ध का चरम काल था। तो, वह देख सकते थे, क्योंकि वह पहले यूरोप गए थे और वह यूरोपीय लोगों के संपर्क में भी थे... वह देख सकते थे इस हो रहे नरसंहारों की भयावहता...इन देशोंमे, जो अत्यधिक सभ्य, शिक्षित, वगैरा माने जाते थे ... और यह उनके लिए मूल रूप से एक झटके के रूप में आया। आप देख सकते हैं कि वह कितने गहरे सदमे में है.. जिस तरह से वह अपने विचार प्रस्तुत करते है.. उनके विचार जो बमुश्किल युद्ध का उल्लेख करते हैं, हालाँकि आप यह बूझ सकते हैं, क्यों कि इसे (इस किताब को) वितरित किया गया था १९१६ में ..इसलिए इसे आप आसानी से समझ सकते हैं। वास्तव में हर चीज उस संहार को संदर्भित करती है जो (उस वक्त) हो रहा था, यूरोप के लोगों के बीच. इसलिए, तब उन तीन व्याख्यानों को इस पुस्तक में एक साथ रखा गया। (यह किताब) अगले वर्ष, १९१७ में प्रकाशित हुई। उस वक्त भी दुनिया में प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था और मुझे लगता है कि इसे ध्यान में रखना होगा, क्योंकि बहुत सारी चीज़ें इसी पृष्ठभूमि की तरफ इशारा करती है...
हालाँकि, टैगोर लगातार, चाहे वह जापानी श्रोतागण को संबोधित करते हों या अमेरिकी, यह देखने का प्रयास करते है कि कैसे एक ओर वह प्रशंसा करते है यूरोपीय संस्कृति की ... लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह इसे भारत में लाना चाहते है... जैसे वह मजाक में कह रहे थे। अलग शब्दों में कहे तो .. कि भारत में अंग्रेजों द्वारा लायी गयी शिक्षा में छोटे बच्चों को हिम वर्षा के बारे में किताबों मे पढवाया गया लेकिन उन क्षेत्रों में जहां उन्होंने कभी कोई हिमपात नहीं देखी थी! इसलिए, मेरा मतलब है की ब्रिटेन में बच्चों के लिए पुस्तकों का स्थानांतरण (बिना किसी संदर्भ के) भारत में बच्चों के लिए करना इसका कोई मतलब नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह पश्चिमी सभ्यता को ही अस्वीकार कर रहे थे, ऐसा बिल्कुल नहीं है... लेकिन वह एक ऐसी एशियाई सभ्यता चाहते है, चाहे वह जापान की बात कर रहे हों या भारत की, जोंकी अपनी प्रेरणा, अपने स्वयं के मूल से निकली हो, लेकिन बिना विदेशी मुल्योंका अस्वीकार करके! इसलिए, वह एक विकल्प चुनना चाहते है, मुल्योंके स्वीकार के प्रति...
राष्ट्रवाद की बात पर वापस आये तो उन्होंने राष्ट्रवाद को पश्चिम के सबसे विद्रूप रूप में देखा.. और जब वो राष्ट्र की बात करते हैं, बहुत बार आपको ऐसा लगता है कि इसका किसी चीज़ से कोई लेना-देना नहीं है, जिसे हम यूरोप में और फ्रांस में, एक राष्ट्र के नाम से जानते है। लेकिन (उनके लेखन में) यह हमेशा उतना स्पष्ट नहीं होता। वह राष्ट्र को ऐसा कहते हैं जो कुछ इस तरह होगा.. एक राज, एक ठंडा राक्षस जो एक राज है... एक अर्थ में, जिस तरह से वह राज का वर्णन करते हैं वह काफी काफ्कानियन (kafkanian) है। वह इसे कुछ ऐसा कहते हैं जो की बहुत ही कार्यक्षम है, बहुत निष्प्राण, बहुत स्वार्थी - द्रव चालित (hydraulic press) की तरह.... बहुत, मेरा मतलब लोगों की भावनाओं का ख्याल न करते हुए, केवल कार्यक्षमता, प्रभावकारिता.....और राष्ट्रवाद की वे निश्चित अस्वीकृति करते है... जिसे अक्सर उनके लेखन में उपनिवेशवाद (colonialism) से सम्मिश्रित किया जा सकता है। इसलिए कभी-कभी यह जानना कठिन होता है कि वह कब वास्तव में राष्ट्र, राज या उपनिवेशवादी शक्ति का उल्लेख करते है। जो निश्चित रूप से उस समय ग्रेट ब्रिटेन था।
अनुबंध: आपका कहना सही है। इस खास सन्दर्भ को, जिसमे टैगोर के विचार अनावृत हुए थे उसे समझाने के लिए शुक्रिया! और आपने जैसे उल्लेख किया वह प्रथम विश्व युद्ध का समय था। ये अधोरेखित करना इसलिए भी जरूरी है क्यूंकि आज हम शायद यूक्रेन संघर्ष के अंत के तरफ हैं, गाजा में युद्ध बहुत व्यापक है.. पिछले कई वर्षों से, कमसे कम कई महिनोंसे, वहा बमबारी और हत्याएं हो रही है... पाकिस्तान और भारत के बीच युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं.. इसलिए, आज हम भी शायद कुछ वैसे ही दौर से गुजर रहे हैं।
फिर भी, मैं आप जिस बारे में बात कर रहे थे उस पर वापस जाऊंगा। टैगोर की पश्चिम की आलोचना पर। और उन्होंने जिस शब्द का प्रयोग किया वह है: “पश्चिम की राजनीतिक सभ्यता”। इससे पहले कि हम उसमें जाएं, मैं जो प्रस्ताव रखना चाहूँगा, वह ये की उसमें उन्होंने न केवल पश्चिम की आलोचना की लेकिन पूर्व की आलोचना भी की! जब उन्होंने पश्चिम की सराहना की, तब उन्होंने पूरब की सराहना भी की और यही वह बात है जहाँ मैं जाना चाहूँगा। क्योंकि, अंत में, यह सब हमारे सह-अस्तित्व के बारे में है। ना की केवल एक अनिच्छुक स्वीकृति के रूप में। लेकिन कुछ रचनात्मक दृष्टिकोण (के परिपेक्ष में)...और मुझे लगता है कि हमें इसकी आवश्यकता है।
ओलिविए: बिल्कुल, और जो आपने अभी कहा उसका समर्थन करने के लिए, जापान में उनके व्याख्यान में आपको जो एक वाक्य मिलेगा, वह ये हैं की: “मैं विश्वास नहीं कर सकता कि पश्चिम की नकल करके जापान क्या बन गया है!” और वह जापान में सख्त गुहार लगा रहे है, की जापान पश्चिमी औपनिवेशिक शक्तियों के कदमों में कदम मिलाये ना चले और यदि वह ऐसा करता है तो यह स्पष्ट है की जापान में साम्राज्यवाद के बीज पहले से ही मौजूद हैं, मीजी युग के बाद। जब उन्होंने पश्चिम से आधुनिकीकरण उधार लिया और वे देख रहे हैं कि अपना विस्तार चीन, कोरिया, वगैरह की तरफ कैसे बढ़ाये..... जाहिर तौर पर टैगोर यह सब जानते है। उंन्हे ऐसा लगता है और वह आपकी (जापान की) संस्कृति को कहने की कोशिश कर रहे है, आपके खास रिश्ते के प्रति.. जो जापानी लोगोंका प्रकृति के साथ हैं। उसकी दुर्दशा... पश्चिमी सभ्यता में जो भी सबसे भद्दा है उसे उधार लेकर एक समझौता नहीं करना चाहिए ... जापान से जो अच्छा है उसे ले लो और जो अच्छा है उसे रख लो।
और साथ ही वह है, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह अति आशावादी है क्योंकि उन्होंने कही लिखा है। मुझे याद नहीं कि एन तीन व्याख्यानों में से किसमें। लेकिन मुझे लगता है कि यह जापान में था: “मैं जानता हूं कि मेरी आवाज बहुत कमजोर है जो खुद को इस कोलाहल से ऊपर उठाने के लिए असमर्थ है।“ इसलिए वह मनोभाव से शांति, संस्कृति और समझता की वकालत कर रहे है। लोगों के बीच शांति और समझ। उसी समय वह अपने आग्रह के बारे में काफी सचेतन भी है।
अनुबंध: हाँ, मेरा मतलब है की एक आम आलोचना, जो टैगोर के बारे में अक्सर की जाती है वह ये की उंन्हे एक स्वप्निल व्यक्ति समझा जाता है। या उनका गैर यथार्थवादी होना, उनकी आदर्शवादी मनोदशा…आप समझ रहे है ना ? लेकिन मैं यह तर्क दूँगा कि उस मानव जीवन का क्या मूल्य है यदि वह सर्वोच्च आदर्शों के लिए समर्पित नहीं है तो? और यह चाहे वह कोई भी देश हो, कोई भी समाज हो, उसपर लागु होगा...
मैं वापस.. मैं वापस आना चाहूँगा और उस तर्क को और अधिक विकसित करने के लिए... और उसके बाद में मैं आपको आमंत्रित करूंगा, आपकी टिप्पणियोंके लिए।
अत: सबसे पहले पश्चिम को लेकर उनकी आलोचना के बारे
में (बात करेंगे) और उन्होंने लिखी कुछ पंक्तियाँ मैं
पढ़ने का प्रस्ताव रखता हूं। वह कहते हैं: “पश्चिम स्वतंत्रता के बारे में बात
करता है लेकिन इसने मानवता को
भी गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया है।” तो, हमारे पास फ्रांसीसी क्रांति के प्रसिद्ध मूल्य है.. स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा, लेकिन हम यह भी जानते हैं पश्चिम का औपनिवेशिक
अतीत, और आज के दौर का, पश्चिमी देशों का नव उदारवादी पर्व...
वे कहते है कि, हम दुनिया के (सभी) लोग महान आदर्शों से एकजुट हैं। और वह कहते है की भले ही यूरोपीय राजनीतिक इतिहास बहुत प्रखर रहा है, या बहुत वर्चस्ववादी, क्रूर रहा है... उस दौर में कुछ ऐसे भी लोग थे जो सार्वभौमिक मूल्यों में विश्वास करते थे और जिहोंने इसके लिए संघर्ष किया। और टैगोर उन्हें "आधुनिक यूरोप के पथभ्रष्ट शूरवीर" कहते हैं और आगे कहते हैं: “यूरोप अपनी उपकारिता में अत्यंत अच्छा है जहां उसका चेहरा पूरी मानवता की ओर मुड़ा है। यूरोप अपने अशुभ पहलुओं में अत्यंत दुष्ट है जहां उसका मुंह केवल अपने हित की ओर जाता है। अपनी महानता की सारी शक्ति का उपयोग जब वह उन उद्देश्यों के लिए करता है जो मनुष्य में जो भी अनंत और शाश्वत है उसके विरुद्ध हैं।” हाँ, तो क्या आप इस पर टिप्पणी करना चाहेंगे? जो टैगोर यहाँ कहना चाह रहे हैं...
ओलिविए: वह ऐसा यहां कहते है और वह इसे अन्यत्र भी कहते है। मेरा मतलब है, आपने जैसे कहा की कुछ लोग ऐसा मानते है कि टैगोर शायद अति आदर्शवादी, और दिवास्वप्न देखनेवाले, असंभव चीज़ें देखने वाले थे। आप ऐसा कह सकते हैं यदि आप उनके इस पुस्तक पर रुकें और उस समय पर जब यह लिखी गयी थी। लेकिन यदि आप टैगोर के संपूर्ण जीवन की परिकल्पना करते हैं, उनकी सार्वजनिक भागीदारी की शुरुआत से, १९४१ में उनके आखिरी दिनों तक। वास्तव में मुझे क्या समझ में आया, यह मुझे बहुत रैखिक लगा। वह सीधा जा रहे है... ऐसा नहीं है कि उनसे गलती नहीं हो सकती और फिर वह सुधार कर लेते है। लेकिन कुल मिलाकर, वह सिर्फ अपने पूर्व मूल विचारों को परिष्कृत कर रहे है, अधिक तर्कों के साथ। तभी तो युद्ध के बाद जब वह फिर से यूरोप की यात्रा शुरू करते है वह फ़्रांस में अल्बर्ट कहन नामक एक व्यक्ति के साथ रहते है... और वह रोमाँ रोलों, जो एक फ्रांसीसी लेखक थे उनके बहुत करीब थे। रोमाँ रोलों एक कम्युनिस्ट और बहुत शांतिवादी थे क्योंकि उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान खाइयों में लड़ाई की थी...और वे दोनों उस शांतिवाद को साझा किया करते थे..
लेकिन जिस चीज़ ने मुझ पर प्रभाव डाला, वह यही है टैगोर संभवतः एकमात्र ऐसे व्यक्ति है जिनके बारे में मैंने सुना है, जो सफलतापूर्वक गांधी के सामने खड़े हो गए। वास्तव में वह उनके प्रति बहुत आदर रखते थे। उन्होंने ही उन्हें "महात्मा: एक महान आत्मा" का उपनाम दिया था। लेकिन उन्होंने कांग्रेस आंदोलन में देखा। मेरा मतलब की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जैसे-जैसे विकास हो रहा था। वह एक राष्ट्रवादी आंदोलन जो आयात कर रहा था, कम से कम संभावित रूप से, पश्चिमी राष्ट्रवाद की सभी खामियाँ, सभी दोषोंको... और वह इस बात से डर रहे थे की गांधी जिस लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे। टैगोर तब कुछ समय के लिए कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहे थे। और वह उस पर असहमत थे और गाँधीजी को उन्हें समझाने का प्रयास करने में बहुत कष्ट हुआ। बिना किसी सफलता से। एकमात्र चीज़ जो टैगोर ने नहीं की वह यह की सार्वजनिक रूप से उनकी (गाँधी) की आलोचना करना। लेकिन उन्होंने इस लड़ाई में कभी गांधी का, गाँधी के शर्तों पर समर्थन नहीं किया।
अनुबंध: हाँ, आप ठीक कह रहे हैं। गांधी और टैगोर के बीच मतभेद काफी थे, काफी महत्वपूर्ण थे लेकिन मैं नहीं कहूंगा की उन्होंने सार्वजनिक रूप से उनकी आलोचना नहीं की क्योंकि १९२५ में उन्होंने एक निबंध लिखा जिसे "चरखे का पंथ" कहा जाता है। और जिसमें उन्होंने "स्वदेशी आंदोलन" की आलोचना की और डाँटा...
ओलिविए: हाँ स्वदेशी आंदोलन। हम सदी के अंत की बात कर रहे हैं। वह उनका पहला राजनीतिक अनुभव था, वह यह था... उसमें वह काफी शामिल थे। लेकिन फिर राष्ट्रवाद की सारी ज्यादतियां उन्होंने देखि। और उन्होंने वहां पर अपना भविष्य राष्ट्रवाद से लड़ने की प्रतिबद्धता में परिभाषित होते देखा।
अनुबंध: और एक... टैगोर के पास गांधीजी की आलोचना में एक और तर्क था। उनका मानना था की गांधी भारतीयों के साथ मानो बच्चों जैसे सुलूक कर रहे थे। और हालाँकि टैगोर उन्हें प्रौढ़ व्यक्तियोंके के रूप में पहचानना चाहते थे, या नागरिकों के रूप में। ऐसे लोगों के रूप में जो सोच सकते हैं। नाकि “सकते है” बल्कि जो लोग सोचते हैं। और जिनमें भावनाएँ हैं। अपनी संपूर्णता में। इसलिए, मुझे लगता है कि यह उन दोनों के बीच दृष्टिकोण का अंतर था।
लेकिन मै दोबारा वापस आता हूँ... टैगोर जिसमे "पश्चिम की राजनीतिक सभ्यता" की आलोचना करते है। मैं एक छोटा अनुच्छेद पढ़ने का प्रस्ताव करता हूं और फिर मैं आपकी टिप्पणी लूंगा, यदि आप चाहों.... और फिर हम आगे बढ़ सकते हैं...
तो टैगोर कहते है: “पश्चिम की राजनीतिक सभ्यता”, जो यूरोप की धरती से उपजी है और सारी दुनिया पर हावी हो रही है, जैसे कोई अपतृण, वह एक अनन्यता पर आधारित है। विदेशियोंको दूर रखने या उन्हें ख़त्म करने के लिए यह हमेशा सतर्क रहती है.. यह मांसाहारी है। यह अपनी प्रवृत्ति में नरभक्षी है। यह अन्य लोगों के संसाधनों का भक्षण करती है। और उनका पूरा भविष्य निगलने की कोशिश करती है। यह सदैव अन्य जातियों के श्रेष्ठता प्राप्त करने से डरती है। जिसे वह ख़तरे का नाम देती हैं और अपनी सीमाओं से बाहर की महानता के सभी लक्षणों को विफल करने का प्रयास करती है। उन मानवों के निशानों को जबरदस्ती नीचे गिराती है जो कमज़ोर हैं, ताकि वह उनकी कमज़ोरी में हमेशा के लिए फसे रहे।”
ओलिविए: हाँ, यह टैगोर है! मेरा मतलब है, वास्तव में ऐसे बहुत से लोग हैं जो राष्ट्रवाद से लड़ते हैं। टागोर का मानना था कि राष्ट्रवाद अनन्य है। (दुसरोंको) बहिष्कृत करने वाला है। शत्रु समझे जाने वाले लोगों को अपने से दूर रखता है। लेकिन टैगोर एक "देशभक्त" है। वह भारत से प्यार करते है। वह सभी को यह याद दिलाते रहते है कि वह भारत और भारतीयों से प्यार करते हैं। और भारतीय संस्कृति से भी! क्योंकि देशभक्ति सकारात्मक प्रेम है। उनके विचार में राष्ट्रवाद एक नकारात्मक घृणा है। दूसरे के प्रति घृणा। इसलिए बहुत से लोग ऐसा सोचते हैं की राष्ट्रवाद और देशभक्ति में कोई अंतर नहीं है। लेकिन वास्तव में, उनके विचार में और उस विश्लेषण का अनुसरण करने वाले कई लोगों की राय में, राष्ट्रवाद का मतलब दूसरे का बहिष्कार है। जबकि देशभक्ति आप जो हैं उसके लिए सकारात्मक सराहना है।
अनुबंध: बिल्कुल सही। और मुझे लगता है कि टैगोर और पंडित नेहरू, इन दोनोंने इस मानवीय जरुरत को पहचाना। मनुष्य को अपनी संस्कृति से जो लगाव है। अपनी भाषा, अपने देश के साथ जो लगाव है, उसका पोषण करने की जरूरत है। मेरा मतलब है कि इस आवश्यकता को पहचानने की जरूरत है। लेकिन वे दोनों इन प्रवृत्तियों की ज्यादतियों के ख़िलाफ़ थे। और उन्होंने इसे राष्ट्रवाद कहा।
अब, आगे बढ़ते हुए, मैं टैगोर की विज्ञान के प्रति कुछ अत्यंत प्रासंगिक टिप्पणियाँ की भी बात करना चाहूँगा और इस के प्रति वो कहते है। मैं दोबारा उनकी कुछ पंग्तिया पढने की खिदमत करता हूँ और फिर उस पर आपकी टिप्पणियाँ आमंत्रित करूँगा।
तो वे कहते हैं: ''विज्ञान मनुष्य का स्वभाव नहीं है। वास्तविक सत्य तो यह है कि विज्ञान मनुष्य का स्वभाव नहीं है। यह मात्र ज्ञान और प्रशिक्षण है। भौतिक ब्रह्मांड के नियमों को जानकर आप अपनी गहरी मानवता को नहीं बदलते हैं। आप दूसरों से ज्ञान उधार ले सकते हैं लेकिन आप (दुसरोंसे) स्वभाव उधार नहीं ले सकते।” और यहाँ वह कहते है, पश्चिम और एशिया (पूरब) के स्वभावोंमे अंतर है। “लेकिन हमारी विद्यालय शिक्षा के अनुकरणीय चरण में हम आवश्यक और गैर-आवश्यक के बीच अंतर नहीं कर सकते... जैसे क्या हस्तांतरणीय है और क्या नहीं के बीच। यह कुछ-कुछ आदिम लोगों की आस्था जैसा है।” तो, यह टैगोर का एक परिछेद है।
अब मैं एक दूसरा परिछेद पढ़ने का प्रस्ताव रखता हूं और फिर मैं आपको टिप्पणी करने के लिए आमंत्रित करूंगा।
तो उनका कहना है कि विज्ञान उनके लिए महज़ एक खेल की तरह क्यों है? वो इसलिए: “केवल विज्ञान पर आधारित जीवन कुछ लोगोंके के लिए आकर्षक है क्योंकि इसमें खेल की सभी खूबियां मौजूद हैं। यह गंभीरता का दिखावा करता है लेकिन यह गहरा नहीं है। जब आप शिकार पर जाते हैं तो आपको जितनी ही कम दया आती है उतना ही बेहतर। क्योंकि आपका उद्देश्य शिकार का पीछा करना और उसे मारना है। यह महसूस करना कि आप उससे एक महान जानवर हों। कि आपके विनाश करने की विधि उससे बेहतर है और वैज्ञानिक भी है। और विज्ञान का जीवन वह सतही जीवन है। यह कौशल और संपूर्णता के साथ सफलता प्राप्त करता है और मनुष्य की उच्च प्रकृति का कोई हिसाब नहीं रखता। परन्तु जिनका मन भौंड़ा है उनके जीवन की योजना बनाने के लिए यह पर्याप्त है। वह जो यह धारणा रखता है कि मनुष्य केवल एक शिकारी है और उसका स्वर्ग खिलाड़ियों का स्वर्ग है, वह कंकालों और खोपड़ियों के अपने पुरस्कारों के बीच बेरहमी से जगाया जाएगा।“
ओलिविए: हाँ, मैं यही कहना चाहता था। हाँ, उन अनुच्छेदों के आधार पर कोई सोच सकता है कि टैगोर विज्ञान के ख़िलाफ़ थे। लेकिन ऐसा नहीं था। वह मनुष्य, प्रकृति और ज्ञान की आपसी एकता में दृढ़ विश्वास रखते थे। और वह निश्चित रूप से शुद्ध विज्ञान से एहतियाती थे और उसका तिरस्कार करते थे। उस प्रकार, आप उंन्हे वैज्ञानिक नहीं कह सकते... मेरा मतलब हाँ है... शायद वैज्ञानिक शब्द सही नहीं है। लेकिन उंन्हे आँख मूँद कर हो रही विज्ञान के माध्यम से प्रगति पर विश्वास नहीं था। उनका मानना था कि विज्ञान प्रगति ला सकता है। और इसके नकारात्मक पहलू भी हो सकते हैं।
शायद, यह कहने का समय है की टैगोर सिर्फ एक लेखक नहीं थे। एक दार्शनिक, एक राजनीतिक विचारक.. जो भी हो, वह चीज़ों को व्यवहार में लाते है। और जब उन्होंने अपने परिवार की इच्छा के विरुद्ध निर्णय लिया, क्योंकि उन्होंने अपने परिवार से बहुत सारा पैसा लिया था और उनके परिवारवाले इसके लिए उनसे खुश नहीं थे। शांतिनिकेतन के विद्यालय के निर्माण के लिए... यह कलकत्ता के बिच नहीं था। यह एक गाँव (भोलपुर) में था। मेरा मतलब ग्रामीण इलाके से है। और वह पेड़ के नीचे पढ़ा रहे थे। आप कह सकते थे, ओह... वह उन भोले स्वभावों के लोंगों में से एक है जैसे कोई गुरु, साधू और वह सब... नहीं... वह दुनियाभर से शैक्षिक मान्यवरों को, उनके साथ रहने और पढ़ाने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। इसलिए वह समावेशन में विश्वास करते थे। हमने कहा कि (टैगोर ने) राष्ट्रवाद का बहिष्कार किया। टैगोर समावेशन में विश्वास करते थे। उन्होंने बाहर से वही लिया जो अच्छा था। उन्होंने अपने यहांसे से जो अच्छा था, वह लिया। और उन्होंने लोगों को पढ़ाकर और पढ़ानेवालों को बुलाकर, उन्हें बेहतर बनाने का प्रयास किया। प्रकृति के साथ समागम में, साथ ही साथ ज्ञान के सहयोग से भी। तो, वह निश्चित रूप से ऐसे मानते थे की ज्ञान बच्चों के लिए एक संपत्ति और एक आवश्यकता है। एक बेहतर नागरिक, एक बेहतर इंसान बनने के लिए.. और आपको उठना होगा... हर जगह के बाज़ार में जाकर, खरीदारी करने के लिए.. जहां अच्छी चीजें हैं और हर चीज़ को उस शिक्षण में समाहित कर देने के लिए...
अनुबंध: बिल्कुल सही और वह संकीर्णतावाद के भी ख़िलाफ़ थे। वे संकुचित मानसिकता के विरोधी थे.. क्योंकि इससे हमें व्यापक रूप से देखने से रोका जाता है.. इससे हमें चुनना या किसीसे बातचीत करना संभव नहीं होता... लेकिन मैं इसमें एक भेद भी बताना चाहूँगा.. मेरा मतलब है, "विज्ञान" और "वैज्ञानिक दृष्टिकोण" के बीच का भेद। क्योंकि अगर आप पढ़ेंगे, अगर आप उनकी कविता, "मेरे देश को जागने दो" (Let my country awake) पढ़ेंगे.... मेरा मतलब है, उसमें कितना कुछ वैज्ञानिक है! और वह भारतीयों को आमंत्रित कर रहे हैं, प्रेरित कर रहे हैं ...पुरानी आदतों को पीछे छोड़ने के लिए... सिर्फ रिवाज के नाम पे दोहरायी गयी आदतों को... और वैज्ञानिक सोच विकसित करने के लिए आमंत्रित कर रहे है... और यह बात भारत के सबसे महानतम कवि कह रहे है! तो, यह सचमुच अविश्वसनीय है।
इससे पहले कि हम इस अध्याय को सम्पूर्ण करें, मैं एक और संदर्भ देना चाहता हूँ। वह है अमेरिका का आधिपत्य। और मैं ... मैं इसके प्रति बहुत उत्सुक हूं। क्योंकि जब मैं फ़्रांस आया तो मैंने यह अनुमान नहीं लगाया था कि अमेरिका, इसकी संस्कृति, फ़्रांस में इतनी प्रभावशाली, इस कदर मौजूद होगी। उदाहरण के लिए, फ्रांस में अधिकांश लोग अंग्रेजी नहीं बोलते हैं। ऐसा विभिन्न कारणों से है। लेकिन फिर भी यहाँ संगीत, हॉलीवुड, फ़िल्में, अमेरिकी संस्कृति का काफी बोलचाल है। भले ही आप फ़्रांस की (पाठशाला की) इतिहास की किताबें लें, आप पाते हैं की हम यहाँ अमेरिका के बारे में बहुत बातें करते हैं। इसके विभिन्न राज्य, इसकी संस्कृति, इसका उद्योग, इसकी अर्थव्यवस्था… और मैं इस प्रभुत्व से काफी चकित था। सिर्फ पश्चिम का प्रभुत्व नहीं, लेकिन फ़्रांस और यूरोप में अमेरिका का प्रभुत्व! क्या आपके पास इस पर कोई टिप्पणी है?
ओलिविए: मुझे लगता है कि यह फ़्रांस के लिए विशिष्ट नहीं है। आप इसे बहुत सारे देशोंमे पाएंगे। यहां तक कि पूर्वी यूरोपीय देशों में भी। भले ही दशकों तक वे सोवियत संघ का हिस्सा थे। फिर भी, शायद वास्तव में इसी कारण से वहा भी अमेरिका की संस्कृति आ रही है। यह संस्कृति युवाओं में प्रचलित थी और आज वर्तमान मै भी है। मुझे लगता है, निश्चित रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद "जी.आई." अपने च्यूइंग गम के साथ आये, उनकी चॉकलेट और हॉलीवुड फिल्में और वह उस मुलायम बल (soft power) का हिस्सा था जिसका इस्तेमाल अमेरिका ने यूरोप और दुनिया में और भी जगह सफलतापूर्वक किया है। और निश्चित रूप से इसने हमारी संस्कृति को भी प्रभावित किया है। भले ही फ्रांसीसियों को अपने तथाकथित सांस्कृतिक अपवाद, इत्यादि पर बहुत गर्व है। लेकिन हां, हमने अमेरिका से काफी कुछ उधार लिया है। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।
अनुबंध: हाँ, वह सिर्फ मेरा एक अवलोकन था। लेकिन आगे बढ़ते हुए, अब पूर्व की ओर चलते हैं, क्योंकि अब तक यह टैगोर द्वारा पश्चिम की सराहना और आलोचना थी। और वह पूर्व के साथ भी कुछ ऐसा ही करते है। सबसे पहले बात करते है उन चीज़ों के बारें में जिनकी की उन्होंने आलोचना की। या वह पश्चिम द्वारा पूर्व के विरुद्ध उठायें गए आरोपों के बारे में भी बात करते हैं।
सबसे पहले मैं फिर से प्रस्ताव रखूंगा, मैं एक छोटा अनुछेद पढ़ने का अनुरोध करता हूं। वह कहते हैं: “यह एशिया के बारे में कहा गया था कि वह कभी प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकती। इसका चेहरा अनिवार्य रूप से अपने पीछे / अतीत की ओर मुड़ा रहता है। भारत में हमने इस आरोप को स्वीकार कर लिया और इस पर विश्वास कर लिया। मैं हमारे शिक्षित समुदाय के एक बड़े वर्ग को जानते हूं, जो हमारे खिलाफ़ इस आरोप का अपमान महसूस करते-करते थक कर, अब आत्म-धोखे के अपने सभी संसाधन जमा कर, इस आरोप को अपनी शेखी बघारने के लिए इस्तमाल कर रहा है लेकिन शेखी बघारना केवल एक छिपाई हुई शर्म है। यह शेखी बधारना वास्तव में स्वयं पर विश्वास नहीं करने का प्रमाण है।" तो, यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण अनुच्छेद है। जो मेरे लिए आज भी प्रासंगिक है।
एक और छोटा अनुच्छेद मैं पढ़ूंगा और फिर आपकी टिप्पणी कों आमंत्रित करता हूँ।
वह एक उदाहरण देते है। एक बहुत ही अजीब उदाहरण जो मुझे काफी प्रेरित करता है, वह यह: जब वह पूर्व और पश्चिम की तुलना करते है। वह पश्चिम की तुलना एक "तेज धावक" से और पूर्व की किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में जो कोई "मैराथन" दौड़ रहा हो। और मैं इस बात को विस्तृत करूंगा । तो, उनका कहना है कि यह आरोप हमारे खिलाफ लगाया गया है की “जो आदर्श, जिन्हें हम पूर्व में संजोते हैं वे स्थिर हैं। कि उनमें ज्ञान और शक्ति के नए द्वार खोलने के लिए कोई संवेग नहीं है। वह तत्त्वज्ञान की प्रणालियाँ जो हमारी पूर्व की काल-भ्रम सभ्यताओं की मुख्य आधार हैं वह सभी बाहरी प्रमाणों का तिरस्कार करती है, और ठोस रूप से अपनी व्यक्तिपरक निश्चितता से संतुष्ट रहती है।“
यह एक आरोप है। बाद में वह कहते है: “तुम कोई प्रगति नहीं करते हो। तुममे कोई चेतना नहीं
है।” पश्चिम का (हमपर) यही आरोप
है। और वह कहते है: मैंने उनसे या उस व्यक्ति से पूछा,
"आपको कैसे पता? आपको प्रगति को उसके
लक्ष्य के अनुसार आंकना होगा। एक चलती हुई रेलगाड़ी अपने आखिरी पड़ाव की ओर प्रगति करती है। यह गति है।
लेकिन एक पूर्ण विकसित वृक्ष है, उसकी इस प्रकार की कोई निश्चित गति नहीं है। उसकी प्रगति उसके जीवन की आंतरिक प्रगति है। वह प्रकाश के प्रति अपनी आकांक्षा के साथ जीता है। अपनी पत्तियों में झुनझुनी और अपने मौन रस में रेंगता है।“
हाँ, यही वह है जो मैं यहाँ प्रस्तुत करना चाहता था।
ओलिविए: इस पर मेरी ज्यादा टिप्पणियाँ नहीं हैं। मेरा मतलब है, मुझे लगता है कि यह काफी प्रासंगिक है और मैं यह कहूंगा, मैं उंन्हे पढ़कर जो समझता हूँ उससे... बात यह है कि वह कई एशियाई लोगों की आलोचना कर रहे हैं। लेकिन उस मामले में इसका तात्पर्य अधिकतर भारतीयों से है। अपनी संस्कृति को लेकर शर्म महसूस करना और ऐसा कहना की विज्ञान और संस्कृति एकमात्र पश्चिम से ही आ सकती है। दूसरी ओर, वह शांत है... कई भारतीयों की मानसिकता के बारे में गंभीर और विशेष रूप से जातियों में स्तरीकरण का जिक्र करते हुए। वह पूरी जाति व्यवस्था के खिलाफ नहीं हैं लेकिन वह उस जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ हैं जो एक प्रकार का बन्दीगृह है, उन लोगों के लिए जिन्हें एक विशिष्ट जाति में रखा गया है। जिससे वह बाहर नहीं जा सकते और कैसे सब कुछ उनके लिए दूसरों द्वारा तय किया जाता है, मूलतः उनके खिलाप। वह मनुष्य, प्रकृति और लोगोंके के बीच संबंधों के तरलीकरण के समर्थक है।और अपनी पुस्तक के किसी चरण में वह एक अजीब तुलना करते है। स्विट्जरलैंड और भारत के बीच। वह कहते है, उन्होंने तब यह तर्क दिया था। यूरोप में हम राष्ट्र के बारे में बोल सकते हैं क्योंकि वे सब सजातीय लोग हैं। तो, राज - राष्ट्र की धारणा यूरोप में समझ आ सकती है लेकिन भारत में नहीं। और इस पुस्तक में वह कई बार ऐसा कहते है। भारत एक राष्ट्र नहीं है। मेरा मतलब है, मैंने सिर्फ एक उधाहरण दिया है लेकिन ऐसे कई अन्य भी हैं। “हम जो कोई राष्ट्र नहीं हैं, हम स्वयं थे। हम एक गैर-राष्ट्र हैं।” लेकिन इसे उपनिवेशवाद के संदर्भ में समझा जा सकता है। बेशक, लेकिन यह भी सभी लोगों में जातीय और सांस्कृतिक मतभेदों के कारण से समझा जा सकता है। वो सभी लोग जो इस रचना का हिस्सा हैं, जो उस समग्र का निर्माण कर रहे हैं, जिसे हम भारत कहते है। भारत एक गणराज्य होने से भी पहले, एक संघीय राज्य होने से भी पहले...उसे उस वक्त भी भारत कहा जाता था। मेरा मतलब उससे पहले है... लेकिन वह स्विट्जरलैंड के बारे में कहते हैं की विभिन्न जातीय समूह होने के बावजूद वे एकीकरण करने में कामयाब रहे हैं। मुझे लगता है, वह इटालियंस, जर्मन और फ़्रांसिसी को संदर्भित करते है। और लगता है की वह सुझाव देते है कि यह भारत के लिए एक अच्छा विचार होगा। मेरा मतलब है लोगों को एकजुट करने में सक्षम होना, उनके मतभेदों का सम्मान करते हुए। और फिर भी स्वयं को समग्र मान सकते हैं। लेकिन वह चिंतन का बहुत प्रारंभिक चरण था। भारत के इतिहास में। हम जानते हैं कि बाद में ऐसा कुछ बनाया गया इसका... लेकिन ऐसा है, मुझे पता नहीं कि यह उनके दिमाग में पहले से ही था लेकिन उन्होंने एक होने की कठिनाई की ओर इशारा किया। एक राष्ट्र होने के अर्थ में। जैसे यूरोपीय राष्ट्र हैं। भारत में, इतने सारे विभिन्न लोगों के साथ।
अनुबंध: हाँ, और यहीं पर मैं जोड़ूंगा की टैगोर और नेहरू, ये दोनों मेरे लिए भारत की दो महान हस्तियाँ थीं जिनके पैर ना सिर्फ इस मिट्टीमे जड़े थे। उनका आस्तित्व न केवल भारतीय संस्कृति और परंपरा में गहराई से निहित था, लेकिन उनके पास यह दुनिया की ओर देखने वाली दृष्टि भी थी। जिसका उन्होंने न केवल अवलोकन और अध्ययन किया। जिंसमे उन्होंने दुनिया के विभिन्न संस्कृतियों और समाजों का ना केवल विश्लेषण किया उनसे भारत की तुलना भी की। यह एक स्वाभाविक और प्राकृतिक प्रक्रिया है। जिसमे एक आदान-प्रदान था, एक आमंत्रण था। और यह मुझे सचमुच अद्भुत लगता है।
अभी और आगे बढ़ें। हम जल्द ही इस साक्षात्कार के अंत तक पहुँच रहे हैं लेकिन मुझे उनकी जापान के बारें में कुछ टिप्पणियाँ पढने की इच्छा है।
उन्होंने जापान की पहचान अन्य पश्चिमी देशों की तुलना में एक अलग उदाहरण होने की बात क्यूँ की। और उन्होंने जापान को चेतावनी भी दी, एक तरह से, कि आप उनसे (पश्चिमी देशोंसे) अलग हों... और आपको वह गलतियाँ नहीं करनी चाहिए क्योंकि आपकी...आपकी ताकत को पश्चिम ने आपकी विध्वंस करने की, दुसरोंका का खात्मा करने की क्षमता से पहचाना है। उस बुराई में (आपको पहचाना है) जो आप पैदा कर सकते हों। लेकिन यह कोई अनुसरण करने योग्य मानदंड नहीं हो सकता। और वह कहते हैं, "जापान ने मुझे जिस चीज़ ने सबसे अधिक प्रभावित किया है, वह यह दृढ़ विश्वास है जिसमे आपने प्रकृति के रहस्य को सुलझाया है... किसी विश्लेषणात्मक ज्ञान के तरीकों से नहीं बल्कि सहानुभूति से। प्रकृति पर बाहर से हावी होना उंन्हे प्यार की ख़ुशी में आपका अपना बनाने से कहीं अधिक सरल बात है, जो एक सच्ची प्रतिभा का काम है.. और यह हैं जापान की प्रतिभा जिसने आपको प्रकृति में सौन्दर्य का दर्शन कराया है और इसे अपने जीवन में साकार करने की शक्ति दी है”। इस के साथ, यदि आपके पास इस जापानी अध्याय पर जोड़ने के लिए कोई टिप्पणी है।
ओलिविए: जैसे मैंने पहले कहा.. मेरा मतलब है वह जापानियों को समझाने का प्रयास कर रहे है की साम्राज्यवाद का वह मार्ग, वह सड़कें न लें। वह पूर्वाभास कर रहे है, (जापान द्वारा) पश्चिम और उसके उपनिवेशवाद, आदि की नकल करना, इत्यादि। लेकिन मैंने (किताब में) एक अंश उद्धृत किया है जहां उन्होंने कहा कि वह इतने मूर्ख नहीं थे की यह न समझें कि उनकी आवाज़, उनका विरोध करने वाली शक्तिओं की ताकत की तुलना में कमज़ोर थी। और वह बहुत सूक्ष्मता से उल्लेख करते है कि उनके व्याख्यानों की आलोचना की गई। मेरा मतलब उनके साक्षात्कार से है, उनके कार्य की जापानी समाचार पत्रों में उनकी टिप्पणियों की आलोचना की गई। उनकी तारीफ करते हुए वे उनके भोलेपन का थोड़ा मज़ाक भी उड़ा रहे थे। इसलिए हां, वह उस रेलगाड़ी को देख सकते थे जो दीवार या रसातल में जा रही थी। यह हमें पता नहीं... और वह देख सकते थे कि यह (रेलगाड़ी) गति प्राप्त कर रही है। और वह प्रयास करते है की इसे रोकें। नहीं तो कम से कम इसका रास्ता तो मोड़ें। और उन्हें डर भी है कि वह ऐसा करने में सफल नहीं होंगे। इसे रोकने के लिए, या उचित समय में इसका रास्ता मोड़ने के लिए।
अनुबंध: हाँ और टैगोर के लेखन से सार्वभौमिकता का एक पंख ले कर, मैं आपको भी बधाई देना चाहता हूं। भारत के विषय में आपके द्वारा किए गए अतुलनीय लेखन के लिए। आपने भारत में जो रुचि ली है उसके लिए। जो पुल आपने इन दो देशों और इनकें लोगों के बीच बनाया हैं, उस लिए! मैं वास्तव में आपके काम और आपके सभी योगदान से खुश हूं। धन्यवाद Olivier, इस चर्चा के लिए और मुझे आशा है कि भविष्य में हम और भी बहुत सारी बातें करेंगे...
ओलिविए: आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!
अनुबंध: आपका स्वागत है।
उन्होंने अब तक बीस पुस्तकें प्रकाशित की हैं, जो मुख्य रूप से अरब प्रायद्वीप और भारत को समर्पित हैं।
Anubandh KATÉ एक पेरिस स्थित अभियंता
है। इसके अलावा वे "ले फ़ोरम फ़्रांस एंद"
के सह-संस्थापक हैं।
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