इस भाग-२ सत्र में, मैं प्राध्यापक ख्रिस्तोफ जाफ़रलो के साथ उनकी
पुस्तक, “गुजरात अंडर
मोदी” के बारे में अपनी चर्चा जारी रखूंगा।
इस साक्षात्कार में ख्रिस्तोफ हमें गुजरात में कांग्रेस के
रूढ़िवादी गुट के प्रभुत्व के पीछे के कारणों के बारे में बताते हैं, जबकि बिहार और
उत्तर प्रदेश जैसे अन्य राज्यों में ऐसा नहीं था। वह हमें गुजरात में भाजपा
समन्वयक के रूप में नरेंद्र मोदी की विफलता के बारे में कम ज्ञात तथ्यों को बताते
हैं, जिसके कारण दल
में गुटबाजी हुई। इसके अलावा, ख्रिस्तोफ गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार के
रशिद लतीफ़ और सोहराबुद्दीन शेख़ के नेतृत्व वाले मुस्लिम माफिया के बीच सांठगांठ
को उजागर करते हैं।
हाल ही में भारत-पाकिस्तान के बीच हुई झड़पों और क्षेत्र के
लिए इसके व्यापक निहितार्थों पर ख्रिस्तोफ की टिप्पणियों को सुनने के लिए साक्षात्कार
भी देखें। वह जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने की पुरज़ोर वकालत करते हैं
और अनुच्छेद ३७० को निरस्त करने के २०१९ के फ़ैसले की
संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हैं।
प्रोफेसर ख्रिस्तोफ जाफ़रलो के साथ साक्षात्कार की एक दिलचस्प श्रृंखला का भाग २ यहां प्रस्तुत है!
https://www.youtube.com/watch?v=5B2YfSefx2k&t=406s
टिप्पणी:
१) साक्षात्कार की शुरुआत और अंत में संगीत वीडियो परंजॉय गुहा ठाकुरता द्वारा निर्मित "साहेब" वीडियो क्लिप है। मूल क्लिप को नीचे दिए गए पते पर पर देखा जा सकता है।
https://www.youtube.com/watch?v=dvfHfYsf5Tw
२) कृपया नीचे दिए गए लिंक पर इस साक्षात्कार की अंग्रेजी प्रतिलेख देखें।
https://thefrenchmasala.blogspot.com/2025/05/gujarat-under-modi-part-2.html
३) कृपया नीचे दिए गए लिंक पर इस साक्षात्कार की फ्रेंच प्रतिलेख देखें।
https://thefrenchmasala.blogspot.com/2025/05/gujarat-part-2-marathi.html
अनुबंध : नमस्ते! मेरा नाम अनुबंध काटे है। मैं प्राध्यापक ख्रिस्तोफ जाफ़रलो के साथ फिर से वापस आ गया हूँ, जिनके साथ मैंने चर्चा शुरू की, उनकी बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक के बारे में “गुजरात, मोदी के अधीन”। ख्रिस्तोफ, स्वागत है आपका!
ख्रिस्तोफ : आमंत्रण के लिए धन्यवाद अनुबंध!
अनुबंध : धन्यवाद। यह पुस्तक महत्वपूर्ण है, जैसा कि हमने पिछली बार चर्चा की थी, क्योंकि बहुत से प्रकाशक तैयार नहीं थे... इसे नवंबर २०१३ में प्रकाशित किया जाना था जब आप इसके हस्तलिखित के साथ तैयार थे... और आखिरकार यह किताब २०२४ में प्रकाशित हुई। दुर्भाग्यवश, आज भी इस पुस्तक के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं, या इस किताब में जो विवरण है उनके बारें में। और यह उन कारणों में से एक है, जिनकी वजह से मैं, वास्तव में चाहता था की हम बात करें और इसलिए मैं इस चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक हूँ।
तो, पहले सत्र में हमने गुजरात के राजनीतिक इतिहास पर चर्चा की और इसमें कई महत्वपूर्ण अध्याय हैं और वे महत्वपूर्ण हैं क्योंकि भारत देश के साथ पिछले एक दशक में जो कुछ हुआ है उसके बारे में गुजरात का बहुत मजबूत निहितार्थ है। आज मैं चाहूंगा, और यदि समय मिले तो हम बात करेंगे, २००२ के गुजरात दंगों के सम्बन्ध में भी और फिर मै इसमें कई अन्य पहलू भी जोडूंगा।
जब मैंने हमारा पहला साक्षात्कार दोबारा देखा तो मुझे लगा कि उन मुद्दों को लाना महत्वपूर्ण होगा और इसलिए मैं उन्हें यहाँ प्रस्तुत करूंगा। यह इसलिए भी क्योंकि हाल ही में भारत में कुछ बहुत गंभीर घटनाएं हुईं है... पहलगाम में हुए इस हमले के बाद, जहां आतंकवादियों ने २६ भारतीयों की हत्या कर दी। तो हम शायद इसके बारे में भी बात करेंगे...
लेकिन इस किताब कि
शुरुवात में, इसके परिचय में
आपने लिखा है कि सामाजिक
वैज्ञानिकों का किताबें लिखना भी एक कर्तव्य है नाकि सिर्फ यहां-वहां कुछ लेख लिखना, पत्रिकाओं या
समाचार पत्रों में। तो, सवाल यह होगा कि आप
क्या कहना चाहते है और आप किसे संबोधित कर रहे हैं? क्या यह आपके भारतीय – पाकिस्तानी सहकर्मियों के लिए है? या फ्रांसीसी या अन्य सहकर्मियों के लिए?
ख्रिस्तोफ : यह एक सामान्य रुझान है... राजनीतिक वैज्ञानिक, आजकल क़िताबे
लिखनेके लिए पहलेसे कम इच्छुक हैं क्योंकि लेख लिखना उनकी आजीविका के लिए अधिक मायने रखता है... इसलिए, राजनीतिक
वैज्ञानिक कम अधिक
तरीके से अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्थापित रुझान का अनुसरण कर रहे है... वास्तव में, राजनीतिक वैज्ञानिक अर्थशास्त्रियों का अनुकरण करने का प्रयास कर रहे है और मुझे लगता है कि ऐसी कुछ बातें हैं जो आप पूर्ण रूप से लेखों में नहीं कह सकते... आपको अधिक जगह की आवश्यकता होती है और इसलिए ऐसी कोई भी चीज़ किताबों की जगह नहीं ले सकती...
अनुबंध : वास्तव में... हाँ, यह बात मुझे अपनी पहली चर्चा की याद दिलाती है जो हमने आपकी पुस्तक अंबेडकर और उनकी जीवनी के बारे में कही थी, जहां अंबेडकर ने एक बहुत बड़ा मुद्दा उठाया था... उस समय उनके सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न था : “हमें राजनीतिक स्वतंत्रता की आवश्यकता क्यों है? वह इसलिए की हम लोगों की सामाजिक और आर्थिक मुक्ति प्रस्थापित कर पायें।“ इसी प्रकार, हमें सामाजिक वैज्ञानिकों की आवश्यकता क्यों है? यह (आपका काम) जनता की भलाई के लिए है और कई मामलों में आपका काम नीति निर्माताओं, राजनयिकों द्वारा, विश्लेषकों द्वारा संदर्भित किया जाता है...तो, मैं वास्तव में खुश हूँ क्यूंकि कि ऐसा करने का उनका जो भी उद्देश्य हो और इसे लागू करने का उनका जो भी तरीका हो, कम से कम इस साक्षात्कार से, हमारे पास आपके काम को लोगों तक पहुंचाने की प्रत्यक्ष संभावना है...आम लोगों तक...
अब मैं आपसे पहलगाम हमले के बारें में कुछ प्रश्न पूछना चाहूँगा... चूंकि आपने पाकिस्तान और भारत, दोनोंका का अध्ययन किया है, यह हमला कितना गंभीर है? और जो तनाव बढ़ रहा है? ये हम सबने २०१९ में भी देखा है, आम चुनावों से ठीक पहले, तब पुलवामा हमला हुआ था... अब बिहार और बंगाल में चुनाव हैं। तो क्या यह इस बात का प्रमाण है की आतंकवादियों को भी लोकतांत्रिक चुनावी कार्यक्रम या चुनावी अनुसूचियां के प्रति आकर्षण है?
इस के बारे में आप क्या सोचते हैं?
ख्रिस्तोफ : खैर, इसका जवाब देना बहुत मुश्किल है वह इसलिए क्योंकि हम नहीं जानते कि ये आतंकवादी किस तरह से सोचते हैं। क्या ये अवसरवाद है? दुसरे कारण क्या है? स्पष्टतः यह स्थान पर्याप्त सुरक्षित नहीं था। यह पर्यटकों के लिए एक नई जगह थी।
तो, शायद यही कारण है कि उस समय इस जगह पर हमला हो सकता था। वाकई, अगर हमें पता होता कि आतंकवादी कैसे काम करते हैं तो हमें गुप्तचर सेवोंकी जरुरत नहीं होती और यह वास्तव में गुप्तचर विभाग के लोगों के लिए प्रश्न है, शिक्षाविदों से कई अधिक।
अनुबंध : लेकिन इसके साथ ही हम यह भी जानते हैं कि भारत के पास, शायद दुनिया में सबसे ज्यादा... दुनिया का सबसे सैन्यीकृत क्षेत्र कश्मीर है, जहां ७ लाख (७,००,०००) से भी अधिक भारतीय सेना के जवान पिछले कई सालोंसे, कई दशकों से स्थायी रूप से तैनात हैं। तो, यह तत्थ्य हम जानते हैं और इसलिए यह अपेक्षित है कि वहां खुफिया विभाग को विफलता हासिल ना हो। खैर, आगे बढ़ते हैं।
आप भारतीयों से क्या कहेंगे? कुछ दिनोसे भारत में कश्मीरियों और मुसलमानों पर हमने कुछ बहुत गंभीर हमले देखे हैं। इन्हें उनके प्रति प्रतिकूल प्रतिक्रिया माना गया। हालाँकि भारत में मुसलमानों पर हमले काफी समय से हो रहे हैं और आप इसके बारे में लिखते रहे हैं... आप इस वक्त आम भारतीयों से क्या कहेंगे?
ख्रिस्तोफ : खैर, आम भारतीय जम्मू और कश्मीर की स्थिति से आवश्यक रूप से, पर्याप्त रूप से जागरूक नहीं हैं। एक प्रकार की गुलाबी तस्वीर चित्रित की गई है और यही कारण है कि (कश्मीर में) पर्यटन इतने बड़े पैमाने पर वापस आ गया है। हालाँकि २०१९ से, अनुच्छेद ३७० के उन्मूलन के बाद से ही तनाव जारी है और जम्मू और कश्मीर के बारे में हमने स्पष्ट रूप से बेहद अलग रायें देखि है। इसमें ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि अलगाववादी प्रवृत्तियों को शांत करना, केवल इस प्रदेश को अधिक स्वायत्तता देकर ही संभव है... यह लोग जम्मू और कश्मीर को एक पूर्ण राज्य के रूप में देखना चाहते हैं... और मैं भी यही सोचता हू कि यह सही दृष्टिकोण है। और आपके पास ऐसे भी लोग है जो मानते हैं कि इसके विपरीत कश्मीर को स्वायत्तता देकर आप अलगाववाद पैदा करते हैं और इसीलिए इनका यह केन्द्रीकृत रवैया है।
अनुच्छेद ३७० का खात्मा सिर्फ एक बात है, आप जानते हैं कि भारतीय संघ के इस राज्य का परिवर्तन एक केंद्र शासित प्रदेश में करना यह निश्चित रूप से एक और बहुत महत्वपूर्ण है निर्णय था। वह इसलिए लिया गया क्योंकि इससे कश्मीरियों और जम्मू के लोगों को पुलिस का स्थानीय सरकार के प्रति दायित्व और स्थानीय नौकरशाही से वंचित रखा जाएँ। यहाँ पर बाहर से आने वाले लोगों का, राज्य से बाहर के लोगोंका, एक प्रकार का “आक्रमण” हो रहा है और यहाँ के जमीन के प्रति भी एक नया दृष्टिकोण आपको देखने को मिलेगा... वह भूमि जो स्थानीय लोगों के लिए थी, उसे जब्त कर लिया जा रहा है। उसे अब छीन लिया जा रहा है। पर्यटक संगठन और होटल्स (विश्रामालय) के द्वारा.... तो, स्पष्ट रूप से समस्या का समाधान नहीं किया गया है। उससे कहीं दूर, आधुनिकीकरण द्वारा एक नया आयाम दिया जा रहा है...
और शायद यह आतंकवादी हमला हमारे लिए एक चेतावनी होगी... भारतीय लोग जो सोचते थे कि (अब सब) ठीक है... (आतंकवाद) ख़त्म हो चुका है, वह अब एक बंद अध्याय है... तो ऐसा नहीं है और राज्य को फिरसे पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना मेरे हिसाब से एक प्रकार का राजनीतिक समझौता करने का एक तरीका होगा और इसका कोई और विकल्प नहीं है... संवैधानिक खेल खेलने के लिए जो भी गुट और संघठन तैयार है उनके साथ मिलकर एक राजनीतिक समाधान निकालनेकी की जरूरत है।
और २०१९ में जो यह निर्णय लिया गया था, यह संभवतः असंवैधानिक था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के किसी भी न्यायाधीश में इस पर गौर करने की हिम्मत नहीं थी। यह अनिर्णीत है। यह मामला वर्षों से अनिर्णीत है क्योंकि न्यायपालिका इस प्रकार के संवेदनशील मुद्दों पर ध्यान नहीं दे रही है। आजकल यह उन पर वर्षों से आसन लगाये बैठी है।
अनुबंध : हाँ, आपने अभी जो कहा उसकी मुझे एक प्रतिध्वनि मिली... कश्मीर में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थानों के कार्यप्रणाली के महत्व के बारे में। हालही में मुझे उप्साला (स्वीडन) विश्वविद्यालय के प्राध्यापक स्टेन विडमाल्म (Sten WIDMALM) के साथ, उनकी किताब “कश्मीर: एक तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में” के बारें में बातचीत करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। और उस पुस्तक में उन्होंने तर्क दिया है कि १९७७ से १९८७ का दौर कश्मीर के लिए एक स्वर्णिम लोकतांत्रिक काल रहा। और यह वहाकी आवाम, अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने के लिए बहुत लाभदायक था। यहाँ तक की उस वक्त आतंकवादी गुटोंने ने आवाम से उग्रवादियों की भर्ती करने की काफी कोशिश की लेकिन कोई इस के लिए तैयार नहीं था! इसलिए, मुझे लगता है की यह आपकी बात की पुष्टि करता है।
ख्रिस्तोफ : हाँ, सबसे बड़ी गलती १९८७ के चुनाव थे क्योंकि जब आप लोगों से एक चुनाव चुराते हैं, फिर वे लोकतांत्रिक खेल से पीछे हट जाते हैं। और वे चरमपंथी - कट्टरपंथियों की बात सुन सकते हैं। और यही १९८९ में हुआ, दो साल बाद यही हुआ... जेकेएलएफ (JKLF - Jammu Kashmir Liberation Front) की शुरुआत हुई... और फिर बेशक, पाकिस्तानी इन अलगाववादी प्रवृत्तियों का उपयोग कर सकते थे। और उन्होंने इस छापेमार लड़ाई (guerrilla) का इस्लामीकरण कर दिया।
अनुबंध : चूँकि हम भारत और पाकिस्तान के बीच इन आसन्न युद्धों के बादलोंकी की बात कर रहे हैं, मैं आपको आपके उस टिपण्णी पर वापस ले जाना चाहूँगा जहाँ आपने कहा था कि गुजरात के एक मुख्यमंत्री को पाकिस्तानी सेना या वायु सेना ने १९६५ में मार डाला था। और उनका नाम था... मैंने थोड़ी छानबीन करने की कोशिश की और मैं अब उस एक अंश को पढूंगा। क्योंकि मुझे लगता है कि यह बहुत प्रासंगिक है और फिर मैं इसपर आपकी टिप्पणियाँ आमंत्रित करूँगा...
तो, उनका नाम था बलवंत राय मेहता जो एक स्वतंत्रता सेनानी थे और “१९६५ के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दरम्यान, १९ सितम्बर १९६५ को तत्कालीन मुख्यमंत्री मेहता ने टाटा केमिकल्स मीठापुर से कच्छ की ओर, भारत और पाकिस्तान के सीमा के बीच, एक बीचक्राफ्ट यात्री विमान में उड़ान भरी। विमान का संचालन भारतीय वायुसेना के पूर्व पायलट जहांगीर इंजीनियर कर रहे थे। इसे पाकिस्तानी वायुसेना के पायलट क़ैस हुसैन ने मार गिराया था। क़ैस हुसैनने इसे एक सैनिक पूर्व-परीक्षण मिशन माना था। मेहता और उनकी पत्नी, इसके अलावा उनके तीन कर्मचारी, एक पत्रकार और दो चालक दल के सदस्य, इनकी इस दुर्घटना में मृत्यु हो गई। अंततः अगस्त २०११ में क़ैस हुसैन ने अपनी गलती के लिए माफी मांगते हुए जहाँगीर इंजीनियर की बेटी को एक ख़त लिखा। यह कहते हुए कि पाकिस्तानी नियंत्रकों द्वारा एक नागरिक विमान को एक सैनिक पूर्व-परीक्षण मिशन माना गया और उसे (क़ैस हुसैन को) इसे मार गिराने का आदेश दिया गया।“
मैं इस बात को उजागर करना चाहता था क्योंकि अक्सर हम चीजें जैसी दिखती है वैसी ही मान लेते है और हमें यह समझना होगा की वहाँ कुछ और भी हो सकता है। इसके पीछे आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी?
ख्रिस्तोफ : खैर, मैं बस इतना कहूंगा कि यह उदाहरण दिखाता है की इस तरह की गलतियोंका का नतीजा बेहद गंभीर हो सकता है। और इसी कारण एक प्रकार का विश्वास, विश्वास का एक न्यूनतम स्तर इन दोनों देशों के बीच होना आवश्यक है। अन्यथा, आपसे इस प्रकार की गलतियाँ हो सकती हैं। नंबर १ और ये गलतियाँ हो जाने के बाद इसके नतीजे खतरनाक हो सकते है।
अनुबंध : नि: संदेह! चलो वापस चलते हैं राजनीतिक इतिहास के बारे में... क्योंकि पिछले सत्र से कुछ मुद्दे अभी बाकि है। आपने बताया कि गुजरात में कांग्रेस की परंपरावादि, रूढ़िवादि शाखा, बिहार और उत्तर प्रदेश के विपरीत विशेष रूप से मजबूत थी। बिहार और उत्तर प्रदेश में हमने कांग्रेस का समाजवादी, वामपंथी धड़ा उसके पारंपरिक धड़े पर प्रमुखता, प्रभुत्व प्राप्त करते हुए देखा। लेकिन क्या आप हमें बता सकते हैं कि वास्तव में ऐसा क्यों हुआ? आपके अनुसार ऐसा क्यूँ हुआ?
ख्रिस्तोफ : खैर, नंबर एक कारण यह था कि वामपंथ को बाहर रखा गया और वामपंथ को बहुत प्रारंभिक चरण में ही बाहर कर दिया गया जब इंदिरा गांधी को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। और यह महात्मा गांधी के आशीर्वाद से हुआ। तो, १९२० के दशक से ही गुजरात कांग्रेस के नेतृत्व में सबसे रूढ़िवादी धडोंका स्पष्ट प्रभुत्व था। वैसे हर जगह रूढ़िवादी पक्ष हैं। बेशक, उत्तर प्रदेश कांग्रेस में भी एक रूढ़िवादी शाखा थी। जैसे उदाहरण के लिए गोविंद वल्लभ पन्त। वे निश्चित रूप से वामपंथी नहीं थे। लेकिन वहाँ था... कम से कम समाजवादी पार्टी के निर्माण तक, १९४० के दशक के अंत तक, उत्तर प्रदेश कांग्रेस में आपके पास वामपंथी विचारधारा वाले लोग थे। यह बात गुजरात में नहीं थी। तो यह नंबर एक कारण है।
दूसरा कारण तो यह है कि गुजरात में अधिकतर व्यवसाई लोगोंका बोलचला है, ब्राम्हणोंसे भी ज्यादा बनिया, वैश्य लोग महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं और ये लोग निश्चित रूप से निजी उद्यम के पक्ष में हैं... साम्यवाद, समाजवादके खिलाफ, निश्चित रूप से। इसके अलावा वे नेहरू या सुभाष चंद्र बोस द्वारा व्यक्त की गयी प्रगतिशील कार्यसूची की सराहना नहीं कर सके। तो, यह एक अलग पारिस्थितिकी व्यवस्था है। और यह बहुत दशकों तक ऐसी ही रही, जब तक कांग्रेस विभाजित न हो। क्योंकि जब कांग्रेस १९६९ में विभाजित हुआ, जबकि रूढ़िवादी लोग कांग्रेस ओ के साथ बने रहे। और इंदिरा अधिक प्रगतिशील लोगोंको बढ़ावा दे सकती थी, जिसमे एहसान जाफ़री शामिल थे, जिसमे (माधव सिंग) सोलंकी भी थे। और यह तब है जब वामपंथ गुजरात में वापसी कर रहा था। जैसे KHAM गठबंधन, जिसमे शामिल थे क्षत्रिय जो है ओबिसी + हरिजन, आदिवासी और मुसलमान... यह गठबंधन उल्लेखनीय रूप से प्रगतिशील है और सत्तर के दशक में आपके पास मंडल है... मंडल से पहले, गुजरात में ... आप जानते हैं ना? वे वास्तव में एक अग्रणी भूमिका निभा रहे थे, इस विशाल गठबंधन को बना कर।
और यह वही बात है जिसे पटेलों ने स्वीकार नहीं किया और पटेलों ने इसका विरोध किया। उन्होंने सोलंकी का जीना दुश्वार कर दिया, उन्हें बाहर निकाल दिया और उनकी जगह किसी और को लाया और उदाहरण के लिए, चिमनभाई पटेल। उन्होंने इसमें एक बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इस अर्थ में....और जब १९८० के दशक में जब भाजपाका उदय होना शुरू हुआ, आरक्षण विरोधी दंगों में, जिसमें पटेलों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। पटेल समुदाय कांग्रेस के साथ रहने के बजाय भाजपा में चला गया। तो इस तरह का तनाव उस वक्त था।
और कांग्रेस के भीतर इस तरह वामपंथियों और दक्षिण पंथियों के बीच एक स्थायी द्वंद्व चलता रहा। इसमें स्वतंत्रता से पहले वामपंथी पटेलवादियों से हार गए। इसके बाद उन्होंने (वामपंथी) १९६९ के विभाजन के बाद कुछ हद तक वापसी की। और वे फिर से हार गये जब एक प्रमुख जाति और उच्च जाति ने भाजपा को समर्थन देना पसंद किया, नाकि एक अधिक प्रगतिशील, वामपंथी कांग्रेस को। तो ऐसा नहीं है कि वहाँ कांग्रेस में कोई वामपंथ नहीं था। बात यह है कि यह बहुत कमजोर था। यह रूढ़िवादियों से दबाव का विरोध करने के लिए बहुत कमजोर था। फिर वह चाहे उच्च जाति का हो या फिर पटेलोंका।
अनुबंध : हाँ, इसके दो पहलू हैं, इसके दो औचित्य जो है जो आपने अपनी पुस्तक में दिए हैं। गुजरात में सामाजिक ध्रुवीकरण के बारे में। और वे मेरे लिए काफी दिलचस्प थे।
मेरा मतलब है, एक बात तो स्पष्ट है। आपने कहा, वहाँ (गुजरात में) विरोध था, मुसलमानों के खिलाफ, उनके वर्चस्व के खिलाफ। और आपने इसे इस तथ्य से जोड़ा कि यह राज्य पाकिस्तान की सीमा से सटा राज्य है, यहाँ (प्राचीन) मुस्लिम छापों की यादें अब तक ताज़ा थी और अन्य पहलू... यह एक तरह से समझने योग्य है।
लेकिन कम से कम मेरे लिए तो यह विरोधाभासी बात है, क्योंकि आपने कहा कि माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में, जिसे कांग्रेस ने बढ़ावा दिया वह क्षत्रियों का KHAM गठबंधन, जिसमे हरिजन, आदिवासी और मुसलमान शामिल थे। एक अजीब ढंग से आपने कहा कि इस गठबंधन से वहा सामाजिक विभाजन और भी बढ़ा! मेरा मतलब है की आपका कहना था की इस कारण सामाजिक विभाजन अधिक बढ़ा। इस राजनीतिके की वजह से...
ख्रिस्तोफ : खैर, जिस क्षण आपके पास एक समूह में मुसलमान है, आप ध्रुवीकरण करते हैं सांप्रदायिक आधार पर, न केवल सामाजिक आधार पर बल्कि सांप्रदायिक आधार पर भी। तो, यह केवल इतना ही नहीं है कि सर्वसाधारण जनता - जिसमे क्षत्रिय, आदिवासी, हरिजन थे उनका विरोध किया गया। उनके उदय का विरोध किया गया। एक प्रभावशाली जाति और उच्च जाति द्वारा। लेकिन यह भी है कि इन समूहों, विशेष रूप से पटेलों से लेकिन जिसमे ब्राह्मण और ठाकुर भी थे। यह लोग ओबीसी, दलित से कहीं अधिक हिंदू धर्मीय थे... विशेषकर, (गुजरात में) स्वामीनारायण आंदोलन के वृद्धि के कारण... गुजरात में स्वामीनारायण आन्दोलन इतना प्रबल था कि यह संस्कृतीकरण का एक महत्वपूर्ण माध्यम था... आपको पता है, पटेल जब वे स्वामीनारायण के अनुयायी बन गये, तो तब वह बहुत अधिक हिंदू बन गए! तो, आपके पास एक अधिरोपण (superposition) है, दो दरारों की, दो दोष भरी रेखाओंकी। सामाजिक दोष रेखाएं - उच्च जाति, प्रभुत्वशाली जाति बनाम साधारण जाति, आम आदमी। और फिर हिंदू बनाम मुसलमान। एक प्रकार की द्वंद्वात्मकता जिसने दरार की रेखा को मजबूत किया। और यह, वैसे अन्यत्र भी हम ऐसा ही कुछ देखते हैं। जब दरार की दो रेखाओ का संयोग होता है तो यह तनाव का एक नुस्खा (recipe) है और मेरा मतलब हिंसा से है...
अनुबंध : हाँ और हमने ऐसा अन्यत्र भी देखा है ... यह सच है… और हम इस पर पुनः विचार करेंगे। कैसे २००२ के दंगों के दरम्यान आदिवासियों और दलितों इस्तमाल किया गया। हम इस पर बाद में विचार करेंगे।
लेकिन चूंकि हमने इस बारे में भी बात की यह भारत का सबसे बड़ा सह विकल्प (cooption) है जहां श्री मोदी, मेरा मतलब है कि जो ओबीसी का प्रतिनिधित्व करते है, जो पिछले कई वर्षों से भाजपा के नेता हैं... किस तरह से उन्होंने सकारात्मक भेदभाव (positive discrimination) की नीति को अप्रभावी बनाया है। और फिर भी हाल ही में हमने देखा है, अभी कल ही की बात है जब एक तरह से मजबूर होकर भाजपा ने जाति जनगणना का स्वीकार कर उसका आदेश दिया है।
तो फिर हमें इसे कैसे समझना चाहिए? क्या यह इस बात का प्रमाण है की राहुल गाँधी के नेतृत्व में, क्या अन्य दलों को यह सफलता मिली है? या फिर यह भाजपा की रणनीति है, पाकिस्तान के साथ तनाव से ध्यान हटा ने के लिए? क्योंकि वे स्पष्टतः पाकिस्तान पर आक्रमण नहीं कर सकते, चूंकि चीन वहां है और चीन का पाकिस्तान में बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है।
आप इसे किस प्रकार देखते हैं?
ख्रिस्तोफ : खैर, मुझे लगता है कि यह घरेलू राजनीति के कारण है। इसका कारण बिहार का चुनाव है। मोदी विपक्ष को बिहार में जीतने नहीं दे सकते। इसलिए भी कि उन्हें नीतीश कुमार की जरूरत है। उन्हें जेडीयू (जनता दल यूनाइटेड) की संसद में जरूरत है और नीतीश कुमार ने बिहार में जाति जनगणना पहले ही शुरू कर दी है। बिहार अब तक एकमात्र राज्य है जहा जाति जनगणना हुई है। अतः, यह अपरिहार्य था। उसे (मोदी को) यह रियायत देनी पड़ी। तो, यह चातुर्यपूर्ण है। निश्चित रूप से यह एक रणनीति है।
लेकिन एक बार जब जाति जनगणना हो जाएगी, तो फिर आपने जाति को सार्वजनिक क्षेत्र में वापस ला दिया है! और इसलिए यह संभवतः एक चातुर्यपूर्ण कदम है जिसके संरचनात्मक परिणाम होंगे। अगला लोकसभा चुनाव, एक अपवाद के लिए, संभवतः लड़ा जाएगा, धर्म के साथ-साथ जाति पर भी! क्योंकि अगर हमारे पास जनगणना है और शायद हमें जनगणना करानी होगी यदि वे परिसीमन (delimitation) करना चाहते हैं। क्योंकि परिसीमन का तात्पर्य जनगणना परिणामों से है। फिर इस पर बहस होगी, बातचीत होगी की राज्य तंत्र में ओबीसी का प्रतिनिधित्व कम है। यह बहुत स्पष्ट होगा कि एक नए प्रकार की बहस शायद शुरू हो रही है, या गति पकड़ रही है। वैसे यह पिछले साल से ही था लेकिन संभवतः इसमें गति आएगी। तो एक सामरिक / चातुर्यपूर्ण कदम जिसके दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं।
अनुबंध : हाँ, लेकिन आपके प्रस्ताव या पुष्टि में मेरे लिए एक पूर्वधारणा है। वो यह की यह जनगणना ईमानदारी से की जाएगी। और हम आधार-सामग्री (data) पर भरोसा कर सकते हैं। क्योंकि यही मुख्य चिंता रही है।
ख्रिस्तोफ : हाँ... हाँ बिल्कुल, वे कर सकते हैं… वे आधार-सामग्री को जाली बना सकते हैं। पर निर्भर करता है इसका कौन प्रभारी होगा... क्योंकि इसमें राज्य सरकारें भी शामिल होंगी। यह अकेला केंद्र नहीं हो सकता जो निर्णय लेगा। तो विपक्षी नेतृत्व वाली राज्य सरकारों को भयभीत करना ज़्यादा मुश्किल हो सकता है। लेकिन हाँ, आप हमेशा आधार-सामग्री को जाली बना सकते हैं। यह काम वे पहले से ही नियमित रूप से कर रहे हैं।
अनुबंध : एक और बात जिसे हम संदर्भ के रूप में भी ले सकते हैं वह है महिला आरक्षण विधेयक। जो पारित तो हो गया लेकिन लागू नहीं हुआ और हमें पता नहीं यह कब लागू होगा।
ख्रिस्तोफ : हाँ, लेकिन वे जाति के साथ ऐसा नहीं कर सकते। आप जानते हैं, अगर वे जाति जनगणना का वादा करते हैं और इसे लागू ना करे, फिर तो हंगामा मच जाएगा। यह... यह एक बहुत संवेदनशील मामला है। और यह देखना दिलचस्प है कि भारतीय राजनीति में जाति की तुलना में ... ओबीसी, दलितों की तुलना में महिलाएं कितनी कमजोर तरीके से संगठित है।
अनुबंध : यह एक अच्छा अवलोकन है।
ठीक है, अब चलिए, आगे बढ़ते हैं...
मैं चाहूंगा की हम कुछ बात करें, के मुख्यमंत्री बनने से पहले श्री मोदी की गुजरात में उपस्थिति के बारे में और आप किताब में बताते हैं... वहाँ एक लंबा, विस्तृत विवरण है... जो राजनैतिक इतिहास आपने पुस्तक में दिया है... लेकिन मैं श्री मोदी को जो एक जिम्मेदारी सौपी गयी थी उसकी की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा। अगर मैं गलत नहीं हूं तो वह भाजपा के एक समन्वयक थे। और उन्हें देखना था की भाजपा दल का कामकाज ठीक से चल रहा है या नहीं। और आपने तर्क दिया कि क्योंकि वहाँ था... शंकर सिंग वाघेला, केशु भाई पटेल और नरेंद्र मोदी के बींच जो टकराव था। और आपके शब्द थे कि “शंकर सिंग वाघेला ने गुजरात में भाजपा का बुनियादी निर्माण किया था।“ फिर भी उन्हें केशु भाई पटेल से मुकाबला करना पड़ा और वह अपने विधायकों को दूसरे राज्य में ले गए।
क्या आप कृपया हमें समझा सकते हैं, उस वक्त वास्तव में क्या हुआ था? नरेंद्र मोदी के भविष्य में, गुजरात में तरक्की के रास्ते कैसे थे?
ख्रिस्तोफ : हाँ, यह कुछ ऐसा है हालाँकि इसे बहोत कम लोग जानते है। मोदी १९८० के दौरान (गुजरात में) संगठन मंत्री थे। इसलिए वह भाजपा के संगठन के प्रभारी थे। वह वास्तव में आयोजन सचिव थे। भाजपा में प्रचारक यही करते हैं। और भाजपा से जुड़े हुए अधिकांश प्रचारक, संगठन के प्रभारी हैं। जिला स्तर पर, राज्य स्तर पर। और उसके बाद जब केशु भाई पटेल १९९५ में चुनाव जीत सके, वहाँ एक गुटीय लड़ाई थी जिसे मोदी ने अच्छे से नहीं संभाला। उन्हें वाघेला गुट को कुछ तो देना चाहिए था। ओर उन्होंने ऐसा नहीं किया। जिसकी वजह से वाघेला ने विद्रोह किया। वो भाजपा से बाहर निकले। सबसे पहले वह एक स्वतंत्र उमेदवार बने। उनका अपना पक्ष था। और अंततः वे कांग्रेस में शामिल हो गए। और गुजरात कांग्रेस के काफी वर्षों तक अध्यक्ष बने रहें।
पार्टी मुख्यालय, सर्वप्रथम अटल बिहारी वाजपेयी, वे इससे बहुत परेशान थे। और वास्तव में, उन्हें (मोदी को) गुजरात से निकाल दिया गया। उन्हें दिल्ली आने को कहा गया। और वहां से, उन्हें हरियाणा और पंजाब का ध्यान रखने को कहा गया। क्योंकि उन्होंने गुजरात में सब कुछ गड़बड़ कर दिया था। उन्होंने गुटबाजी को सही तरीके से ख़त्म नहीं किया। और केवल वाघेला की वजह से नहीं बल्कि किसी और कारण से भी। और एक प्रचारक की वजह से। जोशी, संजय जोशी जिनकी मोदी से बिल्कुल बनती नहीं थी। यह वही बात है जो हम अक्सर कम आंकते है। यह गहराई... भाजपा के पारिस्थितिकी तंत्र में व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता की गहराई। आयोजकों के बीच, राजनेताओं के बीच, एकता का दिखावा। बस दिखावा की अनुशासन का पूर्णतः पालन किया जाता है। इस बात पर बहुत अधिक जोर दिया गया है। और यह प्रकरण इस बारें में बहुत कुछ बताता है। इन खाइयों के गहराई के बारें में... हाँ...
अनुबंध : एक पहलू जो अब मुझे याद है वह यह है की शंकर सिंह वाघेला ने अपने विधायकों को खजुराहो उड़ा ले गए थे खजुराहो, हाँ..
ख्रिस्तोफ : हाँ, बिलकुल क्योंकि आप जानते हैं कि वे ऐसा ही करते हैं, जब वे नहीं चाहते कि विधायाकोंको डराया जाये। इसलिए वह अपने विधायकों को दूसरे राज्य ले जाते है...हर कोई ऐसा करता है.. खरीद-फरोख्त...
अनुबंध : हाँ एक और पहलू यह था और मुझे लगता है कि यह बहुत महत्वपूर्ण है। मेरे दर्शकों को भी यह समझना होगा और यह जानना होगा कि शंकर सिंह वाघेला, वह आदमी जिसके बारे में ख्रिस्तोफ ने कहा की “उन्होंने भाजपा को बुनियाद से खड़ा किया”...
ख्रिस्तोफ : खैर, वे मोदी के साथ, वे दोनों एक साथ थे। वे निश्चित रूप से एक दूसरे के सहयोगी थे। वर्षों से, दशकों से और और फिर भी वे अलग हो गए।
अनुबंध : और जो बात चौंकाने वाली है, की शंकर सिंग वाघेला बाद में गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष बने! हाँ, मेरा मतलब है यह उदाहरण कांग्रेस की राजनीतिक अदूरदर्शिता को उजागर करती है। एक तरह से...
ख्रिस्तोफ : नहीं, यह दिखाता है... कांग्रेस का रूढ़िवादी रवैया... मैंने बताया था ना, समस्या यही है, आप जानते हैं, इस तरह की सरंध्रता (porosity)... कांग्रेस की रूढ़िवादी धारणा या कांग्रेस के दक्षिणपंथी तत्व और राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के बीच। यह पहले दिन से ही वहां मौजूद है। क्योंकि पटेलों का हिंदू राष्ट्रवादियों के प्रति इस प्रकार नरम रुख था।
अनुबंध : चलो आगे बढ़ते हैं। आपकी पुस्तक में एक महत्वपूर्ण पात्र है और यह उपाख्यान (episode) अब्दुल लतीफ़ और मुस्लिम माफिया सरगना के बारे में भी है। जिन पर भाजपा ने काफी रणनीतिक रूप से आरोप लगाया गया था। शायद सही ढंग से, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से भी। या फिर बिल्कुल भी आश्चर्यजनक रूप से नहीं! सत्ता में आने के बाद भाजपा ने उनके साथ सहयोग किया! राजनेता और गुंडे इनके बीच एक गठजोड़ था और इसका राजनीतिक लाभ के लिए शोषण किया गया। क्या आप हमें अब्दुल लतीफ के चरित्र के बारे में बता सकते हैं? और एक हिंदी चलचित्र (film) भी इसी पर आधारित है। शाहरुख खान की २०१७ में आई चलचित्र “रईस”!
ख्रिस्तोफ : हाँ, ठीक है...यह पुनः...भारतीय राजनीति का अधोभाग्य है। पुलिस, गुंडे और राजनेताओं के बीच इस तरह की सांठगांठ। बेशक, गुजरात में इसका बहुत ज़्यादा विकास हुआ क्योंकि यह एक शुष्क (शराब बंदी) राज्य है। क्योंकि आपके पास शराब तस्कर हैं। लेकिन महाराष्ट्र में भी यही देखने को मिलेगा। दशकों से राजनेताओं और पुलिसकर्मियों द्वारा दाऊद इब्राहिम को संरक्षण दिया गया है। १९९० के दशक तक। मतलब काफी देर से, कमसे कम १९८० के दशक के अंत तक। अब्दुल लतीफ वास्तव में दाऊद इब्राहिम का एक सेनापति था। उन्होंने गुजरात में दाऊद इब्राहिम का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन वो (दाऊद से) कुछ अधिक विशिष्ट थे। क्योंकि गुजरात एक शुष्क (शराब बंदी) राज्य है। आपके पास ये सभी शराब के तस्कर हैं। शराब वितरित करके पैसा कमानेवाले। लेकिन ज़ाहिर है की इसमें पुलिसकर्मियों को बहुत अच्छी तरह से पता था कि क्या हो रहा था। और उन्हें अपना हिस्सा मिल रहा था। और राजनेता बहुत अच्छी तरह ये सब जानते थे, और उन्हें भी अपना हिस्सा मिल रहा था। यह है एक प्रकार का श्रम विभाजन। इसमें मुसलमान माफिया की भूमिका निभाते हैं। क्योंकि वे कम शिक्षित हैं, बहिष्कृत है। जिन्हें वैध अधिकारों से, समाज और राजनीति के क्षेत्र से बाहर धकेल दिया गया है। लेकिन वे अन्य सभी के लिए बहुत उपयोगी भूमिका निभाते है। और इससे बहुत सारा पैसा मिलता है। सबको....पुलिसकर्मी के साथ-साथ राजनेताओं को भी। १९८५ के दंगों के दौरान जो कि एक बेहद खौफनाक घटना थी, लतीफ़ सलाखों के पीछे था। लेकिन उसने मुसलमानों के लिए बहुत कुछ किया था। मुसलमान जो बेहद पीड़ित थे, उनके लिए। वह (अब्दुल लतीफ़) नगर निगम चुनाव में निर्वाचित हुए। उन्होंने कीर्तिमान संख्या में वोटों के साथ जीत हासिल की। फिर उन्होंने अपराध को छोड़ने का निर्णय लिया। लेकिन उन्होंने उसे जाने नहीं दिया। उन्होंने उसे अपराध को रोकने नहीं दिया। उन्हें पैसे पाने के लिए किसी की ज़रूरत थी। पैसे इकट्ठा करने के लिए। तो, यह है विडंबना। यह है कि आप इसे पाएंगे सोहराबुद्दीन (शेख) के मामले में भी। नहीं, सोहराबुद्दीन एक अपराधी था, जिसका हर कोई इस्तेमाल करता था...
अनुबंध : अमित शाह सहित!
ख्रिस्तोफ : वह संगमरमर माफिया था। वह रेत माफिया था। सभी प्रकार के माफियाओं का... हाँ .. यह वह राज्य है जहां सबसे बड़ी संख्या में आरटीआई कार्यकर्ता मारे गएँ है। यदि आप प्रति व्यक्ति के हिसाब से देखें। इसमें पूर्ण संख्या महाराष्ट्र की तरफ अधिक हैं। क्योंकि महाराष्ट्र बहुत बड़ा है। लेकिन प्रति व्यक्ति मारे गये आरटीआई कार्यकर्ताओं की संख्या गुजरात में सबसे ज्यादा हैं। और यह संयोग से नहीं।
अनुबंध : हाँ, और पुस्तक में आप यह भी लिखते हैं कि वास्तव में अब्दुल लतीफ और अन्य के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए पुलिस अधिकारी खुश नहीं थे। क्योंकि उस तरह उनकी आय ख़त्म हो जाती।
वैसे... आपने १९८५ के दंगों के बारे में भी उल्लेख किया है जिसका सम्बन्ध हम २००२ के नरसंहार से भी जोड़ेंगे। लेकिन जिस बात ने मुझे वास्तव में प्रभावित किया वह थी मारे गए लोगों की संख्या! तो आपने कहा है कि वहाँ (१९८५ में) १००० से अधिक लोग मारे गए थे। और १९८५ से पहले भी गुजरात में कई भयंकर दंगे हुए हैं।
ख्रिस्तोफ : हाँ...खासकर के १९६९... १९६९ भी उसी संख्या में आता है... लगभग १५००...
अनुबंध : हाँ, मैं एक और बात कहना चाहूँगा और फिर मै (आपसे) उसपर टिप्पणी करने की बिनती करूँगा। वह यह है कि २००२ के नरसंहार में, वास्तव में कितने लोग मारे गए थे, इसके बारे में हमने बहुत कुछ सुना है। और मैंने देखा है कि जब मैं बड़ा हो रहा था, शुरुआत में यह संख्या २००० थी और जब से श्री मोदी सत्ता में हैं, हम देखते हैं की यह संख्या घटकर लगभग आधी, १००० रह गई! पुस्तक में आपने यह भी उद्धृत किया है कि वहाँ (गुजरात में) सामूहिक कब्रें भी मिली हैं जो बाद में पता चली है। और भारत में हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं की अधिकृत और अनौपचारिक आकड़ों के बीच हमेशा एक बड़ा अंतर रहता है। तो, हम इसे कैसे समझे? मारे गए लोगोंकी वास्तविक संख्या क्या होगी?
ख्रिस्तोफ : सेवाभावी संस्थानों का आंकड़ा २००० हैं, क्योंकि जो लोग गायब हो गए हैं वो उन लोगोंके परिवारजनों से मिलने गए है। और इसलिए आप केवल लाशें ही नहीं गिनते, उन सभी को गिनें जो लोग गायब हो गए है। और जो कभी वापस नहीं लौटे। जिनका कोई अतापता नहीं मिला। यही कारण है कि यहाँ आधिकारिक आंकड़ों में और अनौपचारिक आंकड़ों में विसंगति है। और फिर, यदि आप चाहें अनौपचारिक आंकड़ा, लेकिन संभवतः अधिक यथार्थवादी आंकड़ा।
अनुबंध : मेरे लिए सामूहिक कब्रों का उल्लेख भी यह एक चौंकाने वाली बात थी क्योंकि हमने इसे कश्मीर के बारे में बहुत कुछ सुना है। लेकिन (भारत में) किसी अन्य राज्य में ऐसा कभी सुनाई नहीं दिया। कम से कम मुझे तो यह तब तक नहीं पता था जब तक मैंने आपकी किताब ना पढ़ी। लेकिन, मेरा मतलब है, मैं अब मुख्य बात पर आना चाहूँगा।
विवाद का विषय यह है कि २००२ की घटना को दंगे कहें या नरसंहार? और यह एक लंबी बहस है। मैं इस पर आपकी राय जानना चाहूंगा लेकिन उससे पहले मैं योगेंद्र यादव के विचार सामने लाना चाहूंगा... दंगो के विषय में। उनका कहना है कि दंगे अक्सर योजनाबद्ध तरीके से करवाए जाते हैं। वे स्वतःस्फूर्त विस्फोट नहीं हैं, जैसा कि हमें उन पर विश्वास करने के लिए मजबूर किया जाता है। इनका प्रयोग ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस और भाजपा दोनों द्वारा किया जाता रहा है। भाजपा के लिए कारण स्पष्ट हैं। लेकिन कांग्रेस द्वारा भी दंगे करवाए गए है। ताकि दंगों के डर से मुसलमान इसके लिए वोट देते रहें।
आप इन सब पर क्या प्रतिक्रिया देंगे?
ख्रिस्तोफ : हाँ, यह कुछ ऐसा है जो हमने अतीत में भी देखा है। गुजरात में भी...इस पर घनश्याम शाह का बहुत बढ़िया लेख है। जो उस समय उम्र में बहुत छोटे थे। उन्होंने १९६९ के दंगों पर शानदार जांच की और इसमें पता चला कि कांग्रेस के लोग इसमें बहुत अधिक शामिल थे। वही कांग्रेस के दक्षिणपंथी लोग। यह उन लोगों का गंदा काम है। जो वोट बैंक की राजनीति करते हैं। तो इसमें... कांग्रेस के बारें में आप यह नहीं कह सकते कि यह मुख्यतः मुसलमानों की अस्वीकृति से प्रेरित है। यह एक राजनीतिक खेल का हिस्सा है। इसमें आपस में लड़ने वाले गुट, जो सरकार में है, जो कानून और व्यवस्था का इस्तमाल कानून व्यवस्था बिगाड़ने के लिए करते है! उदाहरण के लिए, यह एक ऐसी चीज़ है जो हम...यह कुछ ऐसा है जिसे हमने देखा है, १९९० में हैदराबाद में और १९८९ में इंदौर में भी।
और दूसरा विचार, जिसका उल्लेख आपने पहले ही किया है। मुसलमानों को सज़ा देने का एक तरीका। मुसलमान मतदाताओं ने जब ऐसा नहीं किया है, कांग्रेस को पर्याप्त समर्थन नहीं दिया है तो... यह कुछ ऐसा है जो हमने १९७७ के बाद देखा। १९७७ कश्मीरी गेट की वजह से, क्योंकि संजय गांधी के कारण, आपातकाल के कारण, सामूहिक नसबंदी के कारण, मुसलमानों ने कांग्रेस का उस तरह समर्थन नहीं किया जैसे वे पहले करते थे। और यही इस सज़ा का एक कारण था। लेकिन १९८० में यह रणनीति, पूर्णतः विपरीत हो गयी। इंदिरा गांधी ने अभूतपूर्व संख्या में मुसलमानों को चुनावी उमेदवारी दी। अब तक संसद में मुसलमान कभी इतने अधिक नहीं थे। तो, तीन साल में आप बदल जाते हैं। आपका दृष्टिकोण बदल जाता है। क्योंकि यह वैचारिक नहीं है। कांग्रेस के पास यह है। तो एक युक्ति है... उस समय वोट बैंक की राजनीति थी, जो इस परिवर्तन का कारण थी।
भाजपा की तरफ यह निश्चित रूप से पूरी तरह से अलग, बेशक एक रणनीति है। रणनीति ध्रुवीकरण की है, इसलिए, आपको हिंदुओं को एकजुट करने की जरूरत है। मुसलमानों के खिलाफ़ और वास्तव में दंगे हिंदुओं को एकजुट करने का एक तरीका है किसी “दुसरे” के खिलाफ। लेकिन सर्वोत्तम स्थिति वह स्थिति तब होती है जब मुसलमान यह “दूसरा” होता है। तो, १९८५ के दंगों में यही हुआ था। क्योंकि यह हिंदुओं को फिर से एकजुट करने का एक तरीका था, जो विभाजित हो गए थे। मेरा मतलब है, सोलंकी की नीति के कारण जातिगत आरक्षण का जो रवैया था, उस वजह से। लेकिन इसके अलावा यदि आप चाहें तो यह सांप्रदायिक हिंसा का औजारीकरण है। एक प्रयास यह भी है कि मुसलमानों को सार्वजनिक क्षेत्र से खत्म कर देना, बाहर कर देना। और दंगोंका नतीजा कम से कम इतना हो कि लोग (मुसलमान) बहिस्कृत बस्ती में बस जाएं। इसलिए, मिश्रित बस्तिया दंगों में हताहत का शिकार नंबर एक रहे हैं। और बहिस्कृत बस्ती का निर्माण इससे स्पष्ट हो गया है। उदाहरण के लिए, जुहापुरा (अहमदाबाद) के निर्माण में, जो भारत की सबसे बड़ी मुस्लिम बहिष्कृत बस्ती है। जहा संभवतः पांच लाख लोग रहते है। जिन्होंने मिश्रित पड़ोस को छोड़ दिया और वे चले गए, फिर से संगठित होने के लिए। और इसलिए वे चले गए, उन स्थानोंसे जहाँ हिन्दू उन्हें देख सकते थे। क्योंकि अब कोई भी हिन्दू जुहापुरा नहीं जाता है। तो, आप देख सकते हैं कि इसमें दो अलग-अलग तर्क काम करते है...
ख्रिस्तोफ जाफ़रलो
ख्रिस्तोफ जाफ़रलो साइंस पो (पेरिस) में Centre d'Études et de Recherches Internationales (CERI) में दक्षिण एशियाई राजनीति और इतिहास के प्राध्यापक हैं। वे किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट (लंदन) में भारतीय राजनीति और समाजशास्त्र के प्राध्यापक भी हैं और Centre National de la Recherche Scientifique (CNRS), पेरिस में शोध निदेशक हैं। जाफ़रलो किंग्स कॉलेज लंदन में इंडिया इंस्टीट्यूट में आगंतुक प्राध्यापक हैं। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय, येल विश्वविद्यालय, जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय और यूनिवर्सिटी डी मॉन्ट्रियल में पढ़ाया है। उन्होंने प्रिंसटन विश्वविद्यालय में ग्लोबल स्कॉलर के रूप में काम किया है।
ख्रिस्तोफ जाफ़रलो फ़्रांसीसी विदेश मंत्रालय के Direction de la Prospective में स्थायी सलाहकार हैं।
उन्होंने भारत पर २४ से ज़्यादा और पाकिस्तान पर ७ किताबें लिखी हैं।
ख्रिस्तोफ जाफ़रलो प्रमुख भारतीय समाचार प्रकाशनों जैसे द हिंदू, द इंडियन एक्सप्रेस, द वायर में लगातार स्तंभकार हैं।
अनुबंध काटे पेरिस स्थित इंजीनियर हैं और “Les Forums France Inde” के सह-संस्थापक हैं।
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