अगली पीढ़ी को आज हमने जिन बातों पर चर्चा की है, उनमें से आधे के
बारे में भी पता नहीं होगा। - ख्रिस्तोफ जाफ्रलो
इस भाग-३ सत्र में, मैं प्राध्यापक ख्रिस्तोफ जाफ्रलो के साथ उनकी
अग्रणी पुस्तक, "गुजरात अंडर मोदी" पर अपनी चर्चा संपन्न करता
हूँ। नवंबर २०१३ में कोई भी प्रकाशक इस पुस्तक को प्रकाशित करने को तैयार नहीं
था और अंततः २०२४ में वेस्टलैंड ने ये कर दिखाया।
इस दिलचस्प बातचीत में ख्रिस्तोफ अपनी शैक्षणिक क्षमता का पूरा
इस्तेमाल करते हैं। ऐसा करते हुए वे हमें प्रतिक्रिया देने के बजाय चिंतन करने
के लिए आमंत्रित करते हैं। इस कड़ी में हम २००२ के भयावह गुजरात नरसंहार और उसके बाद
हुए अनगिनत फ़र्ज़ी मुठभेड़ों का विवरण याद करते हैं। हम उन प्रमुख पुलिस
अधिकारियों, रास्वसं और संघ परिवार के सदस्यों के नामों पर प्रकाश
डालते हैं जिन्होंने गुजरात सरकार के साथ बेशर्मी से सांठगांठ की। साथ ही, हम उन कई बहादुर
खोजी पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, गैर सरकारी संगठनों, राजनेताओं और प्रतिबद्ध पुलिस अधिकारियों को वंदन
करते हैं जिन्होंने न्याय और मानवीय गरिमा के लिए लड़ाई लड़ी।
इस संवाद के दौरान यह प्रसिद्ध लेखक नरसंहार, आतंकवादी, आतंकवाद, लक्षित हत्याएँ, उप-ठेके पर हिंसा, ध्रुवीकरण, भय की राजनीति और
कई अन्य वैचारिक संज्ञाओं को स्पष्ट रूप से समझाकर अपनी बौद्धिक कुशाग्रता का
परिचय देते हैं... ख्रिस्तोफ राजनेताओं की मानसिकता में उतरकर यह समझने की कोशिश
करते हैं कि वे फ़र्ज़ी मुठभेड़ें क्यों करवाते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि वे
उद्देश्यों से ज़्यादा प्रक्रियाओं और बयानबाज़ी से ज़्यादा तथ्यों के अहमियत को
रेखांकित करते हैं।
ख्रिस्तोफ आतंकवादी समूह अभिनव भारत, रास्वसं और भाजपा के बीच गहन
संबंधों पर गहराई से प्रकाश डालते हैं। मेरे आगे दिए सवालों के उनके जवाब जानने के
लिए भी यह साक्षात्कार जरुर देखें!
"क्या रास्वसं को आतंकवादी
संगठन कहा जा सकता है? क्या नरेंद्र मोदी को आतंकवादी गतिविधियों के
लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है?"
प्राध्यापक ख्रिस्तोफ जाफ्रलो के साथ साक्षात्कारों की एक आकर्षक श्रृंखला का भाग
३ यहां प्रस्तुत है!
https://www.youtube.com/watch?v=5G7s5NZV-OA
अनुबंध : फिर से नमस्ते! मेरा नाम अनुबंध काटे है। मैं पेरिस में रहने
वाला एक अभियंता हूँ और मैं उन भाग्यशाली लोगों में से एक हूँ जिन्हें प्रोफ़ेसर ख्रिस्तोफ जाफ्रलोने साक्षात्कार देने
के लिए सहमति दी है। इसलिए, आज हम साक्षात्कारों की श्रृंखला के एस तीसरे और शायद आखिरी भाग को जारी रखेंगे, जहाँ हम उनकी बेहद चर्चित और हालिया किताब, "मोदी के अधीन गुजरात" पर चर्चा करेंगे।
आप का स्वागत है, ख्रिस्तोफ!
ख्रिस्तोफ : अनु, निमंत्रण के लिए
धन्यवाद।
अनुबंध : ख़ुशी से! इस बार मैं आपके विस्तृत
परिचय का ज़्यादातर हिस्सा छोड़ दूँगा क्योंकि हम अपने पिछले साक्षात्कारों में
ऐसा कर चुके हैं। फिर भी, मैं यह ज़रूर कहूँगा कि आप CERI, Centre d’Études et de Recherche International,
Sciences Po, पेरिस में दक्षिण एशियाई राजनीति और इतिहास के अध्यापक हैं। आप CNRS, जो कि Centre national de la
Recherche Scientifique है, वहा शोध निदेशक भी हैं। और
मैं बार-बार दोहराता रहूँगा कि आपने भारत पर २४ से ज़्यादा और पाकिस्तान पर ७ किताबें लिखी हैं!
ख्रिस्तोफ, इस सत्र में मैं चाहता
हूँ कि हम गुजरात के इतिहास की दो बेहद महत्वपूर्ण घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करें, एक तरह से गुजरात का राजनीतिक इतिहास, और वे हैं २००२ का नरसंहार और उसके बाद हुए फ़र्ज़ी मुठभेड़। हालाँकि, इस पर आगे बढ़ने से
पहले, मेरा एक प्रारंभिक
प्रश्न है। पिछले सत्र में, इस तथ्य को देखते हुए कि पाकिस्तान और भारत के बीच ये झड़पें हुई थीं, जो ७ मई २०२५ को शुरू हुई थीं। इस दिन से ठीक पहले आपने कहा था कि यह ज़रूरी है कि इन दोनों देशों के बीच कम
से कम एक न्यूनतम, बुनियादी भरोसा हो। मेरा मानना है
कि जब आपने उस विश्वास की बात की थी, तो आपका इशारा ज़्यादातर राजनयिकों या राजनीतिक प्रतिष्ठानों की ओर था।
हालाँकि, यह मुद्दा जनता का, लोगों का भी है -
पाकिस्तान और भारत के लोगों का और उनके बीच के विश्वास का - या उनके बीच कम होते, लुप्त होते भरोसे का।
मिसाल के तौर पर, मैं एक्स (ट्विटर) के
सिर्फ़ दो उदाहरण दूँगा। एक पाकिस्तानी ट्विटर हैंडलर ने लिखा, "दिल तोड़ने वाली बात
यह है कि भारत में बहुत से लोग नहीं चाहते कि हम - यानी पाकिस्तानियों – इस धरती पर रहे। वे हम सब की मौत चाहते हैं।"
दूसरा, "द पाकिस्तान
एक्सपीरियंस"
के एंकर शहजाद ग़ियास
शेख़ ने कहा,
"हम भारत से आ रही नफ़रत को महसूस कर सकते हैं। ज़िया उल-हक़ ने कई
पाकिस्तानियों के साथ यही किया था। अगर आप हम पर हमला करेंगे तो हमारे पास बचाव और
जवाबी हमला करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा।"
मुझे यकीन है कि भारत
की तरफ़ से भी कुछ ऐसी ही प्रतिक्रियाएँ होंगी। लेकिन, आप इस नफ़रत को कैसे देखते हैं? और प्रसारमाध्यमोंने
कैसे वास्तविकताओं को तोड़-मरोड़कर पेश किया... उन्होंने तो यहाँ तक
कह दिया कि भारत ने कराची पर हमला किया है, इस्लामाबाद, लाहौर पर कब्ज़ा किया है, वगैरह। क्या आप इस पर
कोई टिप्पणी कर सकते हैं?
ख्रिस्तोफ : मैं इसकी तुलना उस
स्थिति से करूँगा जो मैं एक पाकिस्तानी और एक भारतीय के मिलने पर देखता हूँ। बेशक, विदेश में, क्योंकि आजकल सीमा पार
करना इतना आसान नहीं है। लेकिन जब आप कोई सम्मेलन करते हैं, जब भारतीयों और
पाकिस्तानियों को मिलने और बातचीत करने का कोई अवसर होता है, तो उन्हें तुरंत एहसास
होता है कि वे एक ही परिवेश से आते हैं - सांस्कृतिक, ऐतिहासिक परिवेश से।
दरअसल, २०१९ से मेरा शोध पाकिस्तान
के करतारपुर पर केंद्रित है। करतारपुर वह स्थान है जहाँ गुरु नानक रहते थे और उन्होंने वहाँ सिख धर्म की स्थापना
की थी। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ भारत से तीर्थयात्री बिना किसी वीज़ा के आते हैं।
बेशक, जब वे पहली बार सीमा
पार करते हैं, तो वे विशेष रूप से
घबराए हुए होते हैं क्योंकि वे भारत के क्रमांक एक दुश्मन देश में होते हैं। हालाँकि, वे गुरु नानक की वजह से आते हैं। और केवल सिख लोग ही नहीं। यहाँ हिंदू भी हैं।
यहाँ मुसलमान भी हैं। यहाँ हर तरह के लोग हैं। बहुत जल्द, उन्हें एहसास होता है
कि ये पाकिस्तानी, खासकर जब वे पंजाबी
होते हैं, और जब भारतीय भी
पंजाबी होते हैं, तो वे एक ही भाषा
बोलते हैं, एक ही खाना खाते हैं, एक ही तरह के कपड़े
पहनते हैं और इसलिए एक ही सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के होते हैं। दिन के अंत तक, उन्हें इस बात का इतना
एहसास हो जाता है कि उन्हें इतनी जल्दी वापस चले जाने का बहुत दुख होता है। हो सके तो वहा और रहना चाहेंगे। शायद यही एक कारण है कि सीमा पार करने के लिए प्रवेश पत्र मिलना इतना मुश्किल है
क्योंकि सरकारें लोगोंके बिच साझा पहचान का एहसास नहीं चाहतीं। दरअसल, यह एहसास हिंदुस्तान में, दक्षिण एशियाई हिस्से में, जो पाकिस्तान और भारत से बना है, मौजूद है। और बंगाली पक्ष में भी यही स्थिति है।
इसलिए मैं इन नफरत भरे
भाषणों को सापेक्षतावाद के सहारे देखता हूँ, लेकिन मै उनके प्रभाव को कम नहीं आँकूँगा। खासकर इसलिए क्योंकि लोग इतनी बार सीमा पार
नहीं कर सकते, एक-दूसरे से इतनी बार
नहीं मिल सकते। अब वक्त से साथ यह और भी मुश्किल होता जा रहा है। इस तरह, दूसरा व्यक्ति ऐसा बन जाता है जिससे आप अपनी पहचान भी नहीं बना पाते। यह अलगपन खासकर युवा
पीढ़ी में देखने को मिलता है क्योंकि जिस पीढ़ी ने विभाजन का अनुभव किया है, वह लुप्त हो रही है।
इसलिए, जिनके करीबी रिश्ते
हैं, पारिवारिक रिश्ते हैं, हर तरह के रिश्ते हैं, वे दुनिया छोड़ रहे
हैं और नई पीढ़ी, अगर वे कभी एक-दूसरे
से नहीं मिलते, तो वह एक दुसरे को आसानी से बदनाम कर
सकती है। और एक शिक्षाविद के रूप में हमारा यह काम है कि हम कहें कि वे दोनो एक ही वंश से आते हैं।
अनुबंध : मैं आपसे सहमत हूँ। व्यक्तिगत
स्तर पर भी, मैं खुद को बहुत
सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मैं यहाँ (फ्रांस में) पाकिस्तान के लोगों से मिल सकता
हूँ और उनसे बातचीत कर सकता हूँ। फिर भी, यह भी एक सच्चाई है कि मैं और वे भी, भारतीयों और पाकिस्तानियों के एक विशिष्ट वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो
अपने देश से बाहर आ सकते हैं। मुझे उम्मीद है कि कम से कम सिखों का यह जुड़ाव इन
दोनों देशों के लोगों के बीच दोस्ती के बंधन को ज़िंदा रखेगा।
इस टिप्पणी के लिए
धन्यवाद.
अब हम गुजरात नरसंहार
के विषय पर चर्चा शुरू करते हैं। मेरा पहला सवाल यह होगा कि क्या यह एक नरसंहार है या फिर दंगा है? मुझे पता है कि यह एक
बहुत ही समस्याग्रस्त सवाल है। फिर भी, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। क्या आप इसका जवाब दे सकते हैं?
ख्रिस्तोफ : खैर, अगर आप सही परिभाषाएँ
लागू करें तो यह इतना समस्याजनक नहीं है। आप जानते हैं कि यही तो, फिर से, समाज वैज्ञानिकों से
अपेक्षित है - अवधारणाओं का उपयोग करना, विश्लेषणात्मक धारणाओं का उपयोग करना। नरसंहार एक ऐसी चीज़ है जिसे हमने अतीत
में देखा है। यूरोप में, मध्य युग में, और बाद की शताब्दियों
में, यहूदियों को इसका सबसे ज़्यादा नुकसान
हुआ था। नरसंहार की परिभाषा, २००२ में गुजरात में जो
हमने देखा, उस पर लागू होती है, १९८४ में दिल्ली में जो हमने देखा, और १९८३ में असम के नेल्ली में जो हमने देखा, उस पर भी लागू होती है। यह हमेशा एक ही कहानी है। इसमें बहुत बड़ी संख्या में पीड़ित एक ही समुदाय से थे। इसलिए, यह दंगा नहीं है
क्योंकि इसमें दोनों तरफ़ लोग हताहत नहीं होते। ज़्यादातर हताहत एक ही तरफ़ से होते हैं। इसके अलावा, यह राज्य की मदद से या
कम से कम उसके मौन समर्थन से होता है। इस प्रकार, जब पुलिस हस्तक्षेप
नहीं करती या जब वह (पुलिस) हमलावरों, जो बहुसंख्यक समुदाय से हैं, उनकी मदद करती है, तो आपको एक और कारक, एक और मानदंड मिलता है, नरसंहार क्या है ये समझने के लिए। जब आपके पास ये दो मानदंड हों, तो यह दंगा नहीं रह
जाता। यह दंगे से कहीं बढ़कर है।
अनुबंध : चूँकि हम वैचारिक स्तर
पर हैं, इसलिए मैं आपसे एक और
परिभाषा पूछना चाहता हूँ। यह "आतंकवादी"
शब्द के बारे में है, एक व्यक्ति या संगठन
के रूप में। आप किसी व्यक्ति या संगठन को आतंकवादी कैसे परिभाषित या प्रमाणित
करेंगे?
ख्रिस्तोफ : खैर, इस तरह की परिभाषा का
एकमात्र तरीका प्रक्रियाओं को देखना है, न कि प्रेरणाओं को। आतंकवाद को उस हिंसा से परिभाषित किया जाता है जो
ज़्यादातर समय बेहद कमज़ोर लक्ष्यों, यानी आम नागरिकों के ख़िलाफ़ की जाती है। निश्चित रूप से, किसी भी अन्य प्रकार
के समूहों की तुलना में आम नागरिकों पर, और यह उन्हें आतंकित करने, प्रभावित करने, मनोवैज्ञानिक प्रभाव
डालने के इरादे से। यही एक कारण है कि आत्मघाती हमलावरों को कुछ आतंकवादी समूहों द्वारा बढ़ावा दिया गया है। क्योंकि जब आप खुद को और दूसरों
को मारने का साहस करते हैं, तो निश्चित रूप से आप और भी ज़्यादा आतंकित करते हैं।
इसलिए, मुझे प्रेरणाओं का
ज़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है, मुझे विचारधारा का ज़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है, मुझे पहचान की राजनीति
का ज़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि आपके पास हर तरह के समूहों में
आतंकवादी हैं। आप जानते हैं, तमिल टाइगर्स, जिहादी। इस तरह के कितने सारे गुट। मालेगांव के आरोपी, अभिनव भारत, इन सभी ने आतंकवादी
गतिविधियों का सहारा लिया। अब, यह आतंकवादी समूहों के
लिए है। कुछ लोग कहते हैं कि राज्य के शासनकर्तांओं से भी आता है। और, इसे शासन - राज्य के द्वारा किया गया आतंकवाद कहा जा सकता है। संयोग से, "आतंक"
शब्द का पहली बार
इस्तेमाल फ्रांसीसी क्रांति के दौरान हुआ था, जब रोबेस्पिएरे (Robespierre) के शासनकाल में, १७९० के दशक में - १७९० के दशक के शुरुआती
वर्षों में - उन्होंने राज्य की रक्षा के नाम पर, क्रांति के नाम पर - दर्जनों, सैकड़ों, हज़ारों लोगों की
हत्या करके लोगों को आतंकित किया था। इस प्रकार, आप राज्य की
कार्रवाइयों पर भी आतंकवाद लागू कर सकते हैं, लेकिन यह ज़्यादा जटिल है और आमतौर पर हम ऐसा नहीं करते। फिर भी, आज आप गाजा के लोगों
के खिलाफ इज़राइल के युद्ध को आतंकवाद का एक रूप मान सकते हैं। हमास द्वारा एक
अन्य प्रकार के आतंकवाद का सहारा लेने के बाद यह राज्य आतंकवाद है। हालाँकि, असल में मकसद आतंकित
करना है। मकसद अनिवार्य रूप से पीड़ितों और नागरिकों पर फिर से प्रभाव डालना है।
मुख्य इसमें हताहत नागरिक ही होने चाहिए।
अनुबंध : इस पर दो त्वरित टिप्पणियाँ, इसका पाकिस्तानी बचाव पक्ष के तरफ से एक प्रतिवाद यह है कि कनाडा ने भी भारतपर आतंकवादी राष्ट्र होने का आरोप लगाया है, जब उन्होंने अपनी धरती पर एक सिख मूल के कनाडाई नागरिक की हत्या कर दी। तो उनके लिए यह एक आतंकवादी कृत्य था। यह एक तर्क है।
दूसरा; मैंने हालही में एक कश्मीरी निवासी को देखा, जिसका एक पत्रकार साक्षात्कार ले रहा था और पत्रकार
ने उससे पूछा,
"क्या आपके परिवार में कोई ऐसा व्यक्ति है जो आतंकवादी समूहों से जुड़ा है?" जवाब देने वाले ने कहा, "मुझे माफ़ करना। रास्वसं
(RSS) से सम्बंधित मेरे परिवार में कोई नहीं है।" तो, सवाल फिर वही है कि
क्या रास्वसं एक आतंकवादी संगठन है? क्या नरेंद्र मोदी को भी आतंकवाद के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है?
ख्रिस्तोफ : खैर, कनाडा में
खालिस्तानियों पर, या कनाडा और अमेरिका
में खालिस्तानियों पर हमलों पर - "आतंकवाद"
शब्द शायद गलत जगह पर
है, क्योंकि यह वास्तव में
एक लक्षित हत्या है। आप जो करना चाहते हैं वह किसी को खत्म करना है। यह तरीका
आतंकवादी हमले के समान नहीं है जिसका उद्देश्य प्रभावित करना है। आप कह सकते हैं कि इसका दूसरों पर निर्णायक प्रभाव हो सकता है लेकिन
वास्तव में यह किसी एक व्यक्ति का चयन होता है। यह दर्जनों नागरिकों की हत्या करने जैसा नहीं है।
मुख्य रूप से, क्योंकि यह नागरिक
निश्चित रूप से एक विचारक या उग्रवादी है। दूसरा, वह अकेला है। इसीलिए मैं "लक्षित हत्या"
शब्द का इस्तेमाल करता हूँ, किसी एक को ख़त्म करने के इस तरह के प्रयास के लिए।
जब आप रास्वसं को एक संगठन के रूप में देखते हैं, तो यह निश्चित रूप से
एक अलग कार्यप्रणाली है। अब, रास्वसं स्वयं हिंसा का सहारा लेने के बजाय अन्य समूहों को हिंसा का उप-ठेका
देना पसंद करता है। विचार निश्चित रूप से धर्म परिवर्तन करने का है, लोगों की मानसिकता पर
विजय पाने का है। इसलिए, आप डरा सकते हैं। आप निश्चित रूप से बाहुबल दिखा सकते हैं और यही कारण है कि
आपके पास रास्वसं स्वयंसेवकों के ये जुलूस हैं, उनमें हजारों लोग अपना
अनुशासन दिखाते हैं, अपना बल दिखाते हैं, कभी-कभी तलवारों सहित हथियार दिखाते हैं, न कि केवल लाठियां। हां, इसमें विचार प्रभावित
करने का है, दूसरे पर प्रभाव डालने
का है, लेकिन हिंसा का सहारा
लिए बिना, सीधे तौर पर हिंसा का
सहारा लेने से बचने की कोशिश करते हुए। हिंसा का प्रयोग तब होता है, जब इसे अन्य समूहों को
सौपा जाता है... जो रास्वसं को सुचना दे सकता है, उसे रिपोर्ट कर सकता
है, जो संघ परिवार का हिस्सा हो सकता है। लेकिन, यह वास्तव में रास्वसं
नहीं है।
अनुबंध : इसका मतलब, यदि मैंने आपको सही
ढंग से समझा है तो अन्य संबद्ध समूहों को संभावित रूप से आतंकवादी समूह कहा जा सकता है, लेकिन प्रत्यक्ष रूप
से रास्वसं को आतंकवादी संगठन नहीं कहा जा सकता।
ख्रिस्तोफ : और जब आप आतंकवादी समूहों को देखते हैं, उदाहरण के लिए, जब आप अभिनव भारत को देखते हैं, तो उस पर सीबीआई (केंद्रीय जांच ब्यूरो) और एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) ने आधा दर्जन बम विस्फोटों के लिए जिम्मेदार होने का आरोप लगाया है। यही उनकी कार्यप्रणाली थी। इसलिए, समझौता एक्सप्रेस, मालेगांव, अजमेर, मक्का मस्जिद... आपके पास आधा दर्जन प्रकार के मामले हैं। अभिनव भारत पूर्व रास्वसं कार्यकर्ताओं, पूर्व प्रचारकों या कुछ हद तक असंतुष्ट स्वयंसेवकों से बना था। इसमें भगवाधारी योगी व्यक्तिगत रूप से शामिल थे। आपके पास नई दिल्ली से भाजपा की एक पूर्व सांसद (प्रज्ञा सिंह ठाकुर) भी थीं। साथ ही, वे लोग जो सावरकरवादी परंपरा से आए थे - जिनमें हिमानी सावरकर भी शामिल थीं, जो उसी परिवार से थीं। इसके अलावा, कर्नल श्रीकांत पुरोहित सहित कुछ पूर्व सैन्यकर्मी या सक्रिय सैन्यकर्मी भी थे। यह एक बहुत ही विषमलिंगी प्रकार का संगठन था और जब आप उनकी बैठकों को देखते हैं तो किस एक स्थिर दिशा की भावना देखना आसान नहीं होता है।
दरअसल, मुझे एक भारतीय
पत्रकार के द्वारा एफआईआर(प्रथम सूचना रिकॉर्ड)दी गई थी, लेकिन वह खुद उस जानकारी का उपयोग करने
से हिचक रहा था। इस प्रकार, मैं उनकी बैठकों की प्रतिलिपियाँ
देख सकता था क्योंकि ये सभी बैठकें लिखित रूप से दर्ज किए गयी थी। मैंने इस पर
ईपीडब्ल्यू (आर्थिक और राजनीतिक साप्ताहिक) में एक लंबा लेख लिखा था। मुझे नहीं
पता कि यह अभी भी इन्टरनेट पर उपलब्ध है या नहीं, क्योंकि निश्चित रूप से, अभिवेचन (सेंसरशिप) अपना काम करती है। फिर भी, मैंने इन स्रोतों का
उपयोग यह दिखाने के लिए किया है कि यह कैसे उत्पन्न होता है। यह एक प्रकार का
वैचारिक जुगाडोंसे बना असंगत मिश्रण है, बिना किसी स्पष्ट आचरण रेखा के। हालाँकि, आप जानते हैं, यह इतना असाधारण नहीं
है। कई आतंकवादी समूह शौकिया तौर पर बनाए जाते हैं। जरूरी नहीं कि वे बहुत
अनुशासित और संगठित हों। इसलिए, मैं जो मुख्य मानदंड रखता हूँ, मैं दोहराता हूँ, वह है बहुत कमजोर नागरिकों के खिलाफ हिंसा का प्रयोग करना और इस समुदाय पर
बहुत गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने की कोशिश करना। हर बार यही होता आता है।
अनुबंध : ठीक है धन्यवाद।
अब अपने मुख्य विषय पर आते है।
एक बात साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने की है। और यही वह तर्क था जिसका इस्तेमाल
नरेंद्र मोदी ने
"क्रिया-प्रतिक्रिया" सिद्धांत के रूप में किया था। अब, आपकी पुस्तक में उन जाँचों के अलग-अलग संस्करण हैं जिनका आपने अध्ययन किया है
और आपने सच्चाई की तह तक जाने की कोशिश की है। तो, मेरे श्रोताओं, क्या आप हमें बता सकते
हैं कि वास्तव में आपके लिए घटित घटनाओं का सबसे विश्वसनीय संस्करण क्या है?
ख्रिस्तोफ : यह कहना बहुत मुश्किल
है कि घटनाओं का सबसे संभावित क्रम, सबसे विश्वसनीय संस्करण क्या है। वास्तव में, इस बारें में अलग-अलग
परिकल्पनाएँ हैं। या तो आग अंदर से लगी थी, और यह जाँच के परिणामों में से एक है। यह बाहरी लोगों का नहीं, बल्कि अंदरूनी लोगों
का काम था। समस्या यह थी कि वहाँ बाहर लोग थे, जिनकी वजह से अंदर
मौजूद लोगों का डिब्बों से बाहर निकलना असंभव हो गया था। दूसरी परिकल्पना, निश्चित रूप से, बाहर से हुए हमले हैं, जिनमें कुछ बम - आग
लगाने वाले बम - भी शामिल थे, जो इसके लिए ज़िम्मेदार थे।
मेरे लिए सबसे
महत्वपूर्ण बात घटनाओं का क्रम नहीं है। बल्कि, आप इन घटनाओं की जो
व्याख्या करते हैं, वह है। यहाँ मुख्य
प्रश्न यह है कि क्या यह पूर्व नियोजित था? या यह एक स्वतःस्फूर्त क्रिया या प्रतिक्रिया थी? निश्चित रूप से कोई
हमला हुआ था, जिससे अंदरूनी लोगों
का डिब्बों से बाहर निकलना असंभव हो गया था या वे स्वयं हमले के लिए ज़िम्मेदार
थे। अब, ज़िले के प्रभारी
नौकरशाह - जब वे गोधरा स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँचे, तो उन्होंने तुरंत मान
लिया कि किसी पूर्व नियोजित कार्रवाई का कोई सबूत नहीं था। इससे नरेंद्र मोदी का
रवैया और भी संदिग्ध हो जाता है क्योंकि उन्होंने इस हमले के लिए पाकिस्तान, यहाँ तक कि आईएसआई
(इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस) द्वारा प्रायोजित पाकिस्तानी हमलावरों को ज़िम्मेदार
ठहराया। दरअसल, वे अकेले नहीं थे।
दिल्ली में भी कई भाजपा नेताओं ने ऐसा ही किया। फिर यह एक राजनीतिक सवाल बन गया।
एक राजनीति विज्ञानी होने के नाते, मेरी दिलचस्पी इस बात में ज़्यादा है कि किसी ऐसी बात का राजनीतिक इस्तेमाल
कैसे किया जाता है जिसका अभी तक कोई हल नहीं निकला है। यही निष्कर्ष इस तथ्य से भी
निकलता है कि मारे गए ५६ लोगों के शवों को
अहमदाबाद ले जाया गया और ध्रुवीकरण के लिहाज़ से ज़रूरी असर डालने के लिए टीवी पर इसे बार-बार दिखाया गया।
आप जानते ही हैं, यहाँ मुख्य शब्द
ध्रुवीकरण है। मकसद है राजनीतिक उद्देश्यों के लिए समाज का ध्रुवीकरण करना। और यह
काम करता है। मेरा मतलब है, यह नतीजे दिलाता है।
अनुबंध : इसमें हम जो निश्चित
रूप से जानते हैं वो यह की इस घटना का नरेन्द्र मोदी द्वारा राजनीतिक शोषण किया गया, क्योंकि इसके प्रमाण
मौजूद हैं।
फिर भी, कुछ बातें मैं उजागर
करना चाहूँगा - क्योंकि हमारे पास ज़्यादा समय नहीं है, फिर भी वे बहुत ज़रूरी
हैं - और जो मैंने आपकी किताब से सीखीं है - वह यह कि अगर मैं ग़लत नहीं हूँ तो ट्रेन उत्तर प्रदेश से आ रही थी। उसमें
लगभग ५०% से ज़्यादा - शायद ७०-७५% - कारसेवक (हिंदी में
जिसका अर्थ
"सेवा करने वाले" होता है) बहुत आक्रामक मिजाज में थे। दूसरे सह-यात्रियों, खासकर मुसलमानों को वे परेशान कर रहे थे। मुझे लगता है कि एक परिवार को जबरन ट्रेन से उतरना पड़ा और
जब ट्रेन एक मुस्लिम बहुल इलाके में पहुँची तो यह सब अपने चरम पर पहुँच गया।
झड़पें और विवाद हुए। यही हम जानते हैं।
फिर अलग-अलग आयोग हैं।
हमारे पास नानावटी आयोग है, जो एक तरह से गुजरात सरकार के पक्ष में था। तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद
यादव, जब २००५ में यूपीए (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) की जीत हुई, तब सत्ता में आए और
उन्होंने यूसी बनर्जी समिति का गठन किया। इसने २००५ में एक दस्तावेज पेश की, जिसमें निष्कर्ष
निकाला गया कि २००२ में गोधरा में जिस कोच
में आग लगी थी, जिसमें ५९ लोग मारे गए थे, वह आकस्मिक था, पूर्वनियोजित नहीं।
इसके अलावा, मार्च २००५ में, गुजरात उच्च न्यायालय
ने यूसी बनर्जी रिपोर्ट के कार्यान्वयन पर स्थगन आदेश जारी किया। अक्टूबर २००६ में गुजरात उच्च न्यायालय ने बनर्जी समिति को अवैध घोषित कर दिया। इसलिए, इस पर भी राजनीति हुई।
आपने आशीष खेतान की
तहलका जांच के बारे में भी बात की, जिसमें उन्होंने इस सिद्धांत पर पुनर्विचार किया कि पेट्रोल पंप से पेट्रोल
खरीदा गया था, और जिन मुसलमानों को
पकड़ा गया था, उनके बयान असंगत थे।
तो कुल मिलाकर, आप इन सभी जाँच
रिपोर्टों को किस संदर्भ में रखेंगे, जो जाँच वास्तव में ज़्यादा आगे नहीं बढ़ीं? और क्या आप कांग्रेस, यानी यूपीए सरकार को
इस बात के लिए ज़िम्मेदार ठहराएँगे कि उन्होंने निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित करने और
दोषियों को सज़ा दिलाने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए?
ख्रिस्तोफ : खैर, आप जानते हैं, पुलिस राज्य का विषय
है और सर्वोच्च न्यायलय भी एक एसआईटी (विशेष जाँच दल) के गठन
से बच नहीं सका, जिसकी कमान मुख्यतः
गुजरात पुलिस के हाथ में थी। इसलिए, जब राज्य की न्यायपालिका, राज्य की पुलिस, राज्य की नौकरशाही, इन सब पर कब्ज़ा कर
लिया गया हो, तो भारत जैसे संघीय
ढांचे में इससे ज़्यादा कुछ करना आसान नहीं है। सर्वोच्च न्यायलय क्या कर सकता था
- वह सीबीआई से जाँच करवा सकता था। अगर कहीं कोई गलती है, तो मुझे लगता है कि वह
यहीं है। हालाँकि, आप जानते हैं, यह भी पर्याप्त नहीं
था।
आखिरकार, जब फ़र्ज़ी मुठभेड़ों
का मुद्दा वास्तव में प्रमुख हो गया, तो सीबीआई को यह काम करने के लिए कहा गया। सतीश चंद्र वर्मा अमित शाह को
सलाखों के पीछे डालने के लिए ज़िम्मेदार थे, और फिर अमित शाह को कुछ समय के लिए गुजरात में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी
गई। लेकिन वह इसमें सफलता का शिखर था। वह शिखर था क्योंकि इससे ज्यादा
बाकी कुछ हो ना पाया। २०१२ तक अमित शाह गुजरात वापस आ गए थे और वे राज्य चुनावों को जीत गए। यही कारण है
कि मैं गुजरात को आज के भारत की प्रयोगशाला कहता हूँ। क्योंकि जिस तरह से गुजरात
में राज्य पर कब्जा किया गया है, और राज्य की मुख्य संस्थाओं पर कब्जा किया गया है, उसी तरह से २०१४ के बाद धीरे-धीरे
राष्ट्रीय स्तर पर भी उन्हीं संस्थाओं पर कब्जा किया गया है।
अनुबंध : हां, वास्तव में, क्योंकि यह तर्क अक्सर
इस्तेमाल किया जाता है, कि “यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी वर्तमान प्रधानमंत्री (नरेंद्र मोदी) को “बाइज्जत बरी”("क्लीन चिट") कर दिया है।
ख्रिस्तोफ : हाँ, क्लीन चिट एक बड़ा
शब्द है क्योंकि वे इतनी दूर तक नहीं गए। लेकिन उन्होंने पूरी जाँच पर भी ज़ोर
नहीं दिया। यह भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अंत की शुरुआत थी, और अब तो यह और भी नीचे
चला गया है।
अनुबंध : सही है और मैं यह भी
तर्क दूंगा कि नरेन्द्र मोदी अपने पद पर बने रहे, तथा प्रभावशाली पद पर
रहे, जबकि उन पर मुकदमा चल
रहा था, जो न्याय के किसी भी
सामान्य सिद्धांत के विरुद्ध है।
आगे बढ़ते हुए, मैं इस नरसंहार के कुछ
और अहम पहलुओं पर फिर से प्रकाश डालना चाहता हूँ। आपने लिखा है कि इस बार जो
उल्लेखनीय था वह था नरसंहार का शहर-गाँव का फैलाव। हिंसा सिर्फ़ शहरी इलाकों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि गाँवों तक भी
फैल गई। दूसरी बात, आपने दलितों और
आदिवासियों की भूमिकाओंपर भी बात की, कि कैसे उन्हें भाजपा
ने मुसलमानों की हत्याओं के लिए प्यादा बनाया और उनका इस्तेमाल किया। आपने यह भी बताया कि हथियार पंजाब से मँगवाए गए थे। यानी, वहाँ कुछ पूर्व नियोजित योजना बनाई गई थी।
आपने यह भी बताया कि सेना को घटनास्थल पर जाने से रोका गया था। कई घंटों तक, सेना को अहमदाबाद हवाई
अड्डे से शहर आने के लिए कोई परिवहन व्यवस्था नहीं की गई। उस वक्त के सेना प्रमुख - मैं
उनका नाम भूल गया हूँ – लेकिन उन्होंने पाया कि गुजरात का कर्मचारी वर्ग पूरी तरह से सांप्रदायिक हो चुका था और उनसे ज़्यादा उम्मीदें नहीं थीं। हाँ, और, अंततः नरसंहार कि जाँच में, चूँकि इसमें बहुत सारी समस्याएँ
थीं, इसलिए यह केवल कुछ
मामलों तक ही सीमित रह गई, जैसे गुलबर्ग सोसाइटी, नरोदा पाटिया, बिलकिस बानो। और यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था
क्योंकि वहां बहुत सारी हत्याएँ और अन्य गंभीर मामले थे।
ख्रिस्तोफ : ऐसा इसलिए भी था
क्योंकि गैर-सरकारी संगठनों का मानना था कि सभी मामलों को आगे न बढ़ाना ज़्यादा
व्यावहारिक होगा। और अंततः, वे इस संख्या को घटाकर आठ करने पर सहमत हुए। उनके लिए, अपनी बात रखने के लिए, इतिहास रचने के लिए यह
काफ़ी था। दरअसल, और आपके द्वारा प्रस्तुत कि गई छवि से अधिक संयमित
राय रखूँगा... - दरअसल, भारत में सांप्रदायिक
दंगों के इतिहास में पहली बार कुछ लोगों को दोषी ठहराया गया और कारावास भेजा गया! हलांकि बाद में उन्हें रिहा
कर दिया गया। उदाहरण के लिए, बाबू बजरंगी कारावास गए। आपके पास बहुत साहसी न्यायाधीश थे - कई मामलों में महिलाएँ - जिन्होंने
इस हद तक काम किया। इसी तरह, पुलिस अधिकारियों की भूमिका पर भी ज़ोर दिया जाना चाहिए, जिन्होंने अपना काम
ठीक से किया। फिर भी, उनमें से कुछ अब कारावास में हैं, या ज़मानत पर हैं।
उनमें से कई विदेश में हैं। वे चले गए हैं। उन्हें दरकिनार कर दिया गया है। या उन्हें सज़ा ज़रूर
मिली है। फिर भी, उन्होंने अपना काम
किया। उन्होंने अपना काम ठीक से करने की कोशिश की। यह एक ऐसी बात है जिस पर भी
ज़ोर दिया जाना चाहिए।
अनुबंध : बिलकुल। अब, नरसंहार पर आखिरी सवाल, और फिर हम फ़र्ज़ी मुठभेड़ों
पर आते हैं। इस मुद्दे पर, पत्रकारों द्वारा कई प्रमुख किताबें लिखी गई हैं। खासकर सिद्धार्थ
वरदराजन ने, आशीष खेतान ने, राणा अयूब ने, हर्ष मंदर ने किताबें
लिखी। मुझे यकीन नहीं है कि संजीव भट्ट ने कोई किताब लिखी है - शायद?
ख्रिस्तोफ : नहीं, उन्होंने अब तक कोई
किताब नहीं लिखी।
अनुबंध : शुक्रिया। तो सवाल यह है कि आप
इन किताबों को कैसे देखते हैं? क्या आप इससे अलग कोई और किताब सुझाएँगे?
ख्रिस्तोफ : ये किताबें बहुत अच्छी
जानकारी देती हैं। आप जानते हैं कि उन्होंने पत्रकार या कार्यकर्ता के रूप में
कैसे काम किया क्योंकि हर्ष एक एनजीओ से जुड़े हैं। और बाकी लोग बेहतरीन पत्रकार, खोजी पत्रकार हैं।
इसलिए, ये किताबें बहुत
समृद्ध हैं और मैं उनका इस्तेमाल कर पाया। मैं इनके साक्षात्कारों का
इस्तेमाल कर पाया, लेकिन मैंने किसी का
ज़िक्र नहीं किया क्योंकि आप लोगों को खतरे में नहीं डालना चाहते। हालाँकि, वहाँ छपी जानकारी
बेहतरीन थी क्योंकि वे वाकई बहुत ही पेशेवर और सक्षम पत्रकार हैं।
शिक्षाविद जो करते हैं
वह कुछ अलग है। वे केवल उसी तरह सूचना नहीं देते जिस तरह पत्रकार लोगों को देते
हैं। शिक्षाविद व्याख्या करने, स्थिति को समझने का भी प्रयास करते हैं। ऐसा क्यों हुआ? क्या कारण है? और इस के पीछे मुख्य कारण, मैं दोहराता हूँ, ध्रुवीकरण था। क्योंकि
नरेंद्र मोदी ने जैसे ही वे राज्य विधानसभा को भंग कर सकते थे, भंग कर दिया और जितनी जल्दी हो सके चुनाव कराने की कोशिश की। चुनाव आयोग आया
और उसने कहा कि जब १५००० से ज़्यादा लोग बेघर
हैं तो हम चुनाव कैसे करा सकते हैं? हालाँकि, लालकृष्ण आडवाणी
उप-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री भी थे। उन्होंने दबाव डाला, उन्होंने आग्रह किया
और अंततः चुनाव हो सके। यही मुख्य कारण था कि ये सब हुआ। भाजपा इन चुनावों को एक
दिलचस्प संबंध के साथ जीत सकी, जिस पर चुनावी अध्ययन करने वाले मेरे कई सहयोगियों ने प्रकाश डाला है। जिन
जिलों और निर्वाचन क्षेत्रों में सबसे ज़्यादा हताहत हुए, वहीं भाजपा ने सबसे
ज़्यादा सीटें जीतीं। यह चुनावी उद्देश्यों के लिए ध्रुवीकरण है।
अनुबंध : बिलकुल। अब, आखिरी बात एक लेख के बारे में जिस पर मेरी नजर आज अचानक पड़ी। यह २०१७ में "इंडिया टुडे" में संजीव भट्ट के बारे में था। मैं बस उसकी कुछ पंक्तियाँ पढ़ने जा रहा हूँ।
“संजीव भट्ट ने आरोप
लगाया है कि एक युवा खोजी पत्रकार को एक आईपीएस अधिकारी के साथ अपने प्रेम संबंधों
के लिए सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा होने के डर से अपनी किताब की पटकथा बदलने के लिए
मजबूर किया गया था। वह आगे कहते हैं, भट्ट के अनुसार युवा पत्रकार ने गुजरात में उनकी पत्रकारिता के
कारनामों का विवरण देते हुए एक उत्तेजक और काल्पनिक लेख लिखा, लेकिन गुजरात नरसंहार की साजिश रचने में तत्कालीन प्रमुख मंत्री की भूमिका को
नजरअंदाज करने की असाधारण सावधानी बरती। बदले में, पुस्तक को बिना किसी बाधा के प्रकाशित और प्रचारित करने की अनुमति दी गई।
उन्होंने आगे कहा कि जिसका नतीजा इस राजनीतिक जोड़ी के लिए - अपनी राजनीतिक जिंदगी का अंत हो सकता था”... और मुझे लगता है कि यहाँ वे अमित शाह हैं और मोदी के तरफ़ इशारा कर रहे हैं - और वे आगे कहते है की “जिसका परिणाम इस खोजी पत्रकार के लिए अपनी पत्रकारिता का अंत हो सकता था वह इन दोनों पक्षों के लिए
जीत वाली स्थिति बन गयी।
अगर मैं ग़लत नहीं हूँ, तो वह राणा अयूब का ज़िक्र कर
रहे हैं। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?
ख्रिस्तोफ : मुझे नहीं पता, मुझे कुछ पता नहीं। सच
कहूँ तो, मैं आमतौर पर इन निजी रंजिशों में नहीं पड़ता। मुझे इस तरह के
विवादास्पद मुद्दों में कोई दिलचस्पी नहीं है।
अनुबंध : ठीक है।
अब बात करते हैं दंगों
के बाद हुए फ़र्ज़ी मुठभेड़ों की। ऐसे कई मामले हैं। मैं अपनी स्क्रीन शेयर करना
चाहता हूँ। मैंने कुछ मामले सिर्फ़ आपको संक्षेप में दिखाने के लिए चुने हैं।
मैंने यहाँ उनका सारांश पेश किया है और बाद में, मै आपकी टिप्पणियों का अनुरोध करूँगा।
तो, हमारे पास समीर खान, कसम जाफर, हाजी हाजी इस्माइल, फिर सादिक जमाल, इशरत जहां, शोहराबुद्दीन शेख हैं।
यह उनके खिलाफ जबरन वसूली का मामला था। तुलसीराम प्रजापति - वह सोहराबुद्दीन के गिरोह का हिस्सा था और वह
सोहराबुद्दीन की हत्या का चश्मदीद गवाह था।
ख्रिस्तोफ : जो लोग विस्तार से विवरण जानना चाहते हैं, वे निश्चित रूप से
पुस्तक पढ़ सकते हैं। हमेशा यही बात कही जाती है कि गुजरात पुलिस ने पाकिस्तान से
आने वाले या लश्कर-ए-तैयबा (LeT) या जैश-ए-मोहम्मद (JeM) जैसे किसी पाकिस्तान स्थित संगठन द्वारा समर्थित "आतंकवादियों" की पहचान की है और
घोषणा की जाती है कि ये लोग नरेंद्र मोदी की हत्या करने आए थे। इसीलिए उन्होंने उन्हें मार डाला
है। कई मामलों में पोस्टमार्टम से पता चला है कि उन्हें भागते समय पीठ में नहीं
मारा गया था। उन्हें स्पष्ट रूप से मार डाला गया था। इसके अलावा, कुछ कुछ निश्चित
संख्या में पुलिसकर्मी इसमें शामिल थे। आपने उनमें से अधिकांश का विवरण यहां दिया है। उस मामले में सबसे प्रमुख
आईपीएस अधिकारी श्री वंजारा थे। जांच के परिणामस्वरूप बीस से अधिक पुलिसकर्मियों
को गिरफ्तार किया गया। वंजारा और इन २० से अधिक पुलिसकर्मियों
को कारावास भेज दिया गया, जहाँ उन्होंने काफी
लंबा समय बिताया। इतना लंबा समय कि एक समय पर, वंजारा ने एक लंबा
पत्र लिखकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर उन्हें निराश करने का आरोप लगाया था। यह
पत्र वास्तव में दिलचस्प है, जिसमें बताया गया है कि क्या हुआ था, ये सारी चीजें क्यों सुनियोजित थीं, क्यों रची गई थीं।
अनुबंध : ख्रिस्तोफ - माफ़
कीजिएगा, आपको बीच में टोकने के लिए क्योंकि आपने किताब
में इस पत्र का विस्तार से ज़िक्र किया है। मैं इस पत्र का एक छोटा सा अंश पढ़ने का प्रस्ताव रखता हूँ, क्योंकि मुझे लगता है
कि इससे आपकी बात और ज्यादा सुलेखित हो जाएगी।
इस प्रकार, सितंबर २०१३ में वंजारा ने, जिन्हें इशरत जहान मामले में उनकी भूमिका
के कारण दोबारा गिरफ़्तार किया गया था, गुजरात पुलिस से
इस्तीफ़ा दे दिया। अपने त्यागपत्र में उन्होंने कहा कि वे तब तक चुपचाप कष्ट सह
रह थे क्योंकि "गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्हें मैं भगवान की
तरह पूजता था, मेरी गहरी आस्था और
उनके प्रति गहरा सम्मान था। लेकिन मुझे यह कहते हुए दुःख हो रहा है कि अमित शाह के
कुप्रभाव के कारण मेरे भगवान इस अवसर पर खड़े नहीं हो सके।"
वंजारा का पत्र इस
व्यापक मिलीभगत के निहितार्थों को उजागर करता है। उन्होंने कहा कि उनका मानना है
कि ऐसे मामलों में पुलिस और सरकार के बीच पारस्परिक संरक्षण और पारस्परिक सहायता
एक अलिखित नियम है। वास्तव में, वंजारा को सरकार के उदार रवैये का लाभ मिला था। २००२ से २००७ तक, केवल पाँच वर्षों में, उन्हें अहमदाबाद शहर
की अपराध शाखा में पुलिस उपायुक्त से अहमदाबाद के आतंकवाद विरोधी दस्ते में पुलिस
उप-महानिरीक्षक और फिर कच्छ संभाग के पुलिस सीमा क्षेत्र में पुलिस उप-महानिरीक्षक
(DIG)
के पद पर पदोन्नत किया गया।
ख्रिस्तोफ : तो, देखिए, एक राजनीतिक वैज्ञानिक
के रूप में, दो चीजें हैं जिनमें
मेरी बहुत रुचि है।
एक तो पुलिसकर्मियों
की प्रेरणा है। पुलिसकर्मियों की प्रेरणा राजनीतिक आकाओं को खुश करने और पदोन्नति
पाने की हो सकती है। वे खुद भी बहुत उत्साही हो सकते हैं और राजनेताओं की उन
उम्मीदों का अंदाज़ा लगा सकते हैं जो शायद राजनेताओं को भी नहीं होतीं। यह
पुलिसकर्मियों के बारे में है और इसे समझना ज़्यादा मुश्किल नहीं है।
अब, राजनेताओं की बात करें
तो वे ऐसा क्यों करेंगे? वे फ़र्ज़ी मुठभेड़ों
का आयोजन क्यों करेंगे? उनका उद्देश्य क्या है? उद्देश्य शायद वही रहा होगा जिसे हम भय की राजनीति कहते हैं। और यही वह
अवधारणा है जिसका हम राजनीति विज्ञान में प्रयोग करते हैं। भय की राजनीति का मतलब
है कि आप असुरक्षा की भावना, भय की भावना का प्रचार करने की कोशिश करते हैं, क्योंकि अगर लोग भयभीत
हैं, अगर लोग असुरक्षित
महसूस करते हैं, तो उन्हें और भी
ज़्यादा ज़रूरत है एक रक्षक, एक उद्धारक, एक मजबूत आदमी, एक "चौकीदार" की... यह आखिरी शब्द, जिसका प्रयोग भारत की राजनीती में फिर से किया जायेगा। हालाँकि, यह गुजरात में पहले से
ही मौजूद था। यह धारणा कि मोदी गुजरात के "चौकीदार"
हैं, २००९-२०१० में ही मौजूद थी। इसलिए, आपके पास भय की भावना, भय की राजनीति पैदा करने के लिए फ़र्ज़ी मुठभेड़ों का यह आयोजन है, जिसका वास्तव में वही
परिणाम है जो नरसंहार का है। ध्रुवीकरण! उद्देश्य लगातार यह दिखाना है कि एक ख़तरा
है। और इन ख़तरों की प्रतिक्रिया में, सरकार सही काम कर रही है।
अनुबंध : तो, आम तौर पर हम जो रवैया
देखते हैं, वह यह है कि ईमानदार
पुलिसकर्मियों को सज़ा दी जाती है और जो उनके कारस्थान में सहयोगी है, सहभागी है उन्हें
पुरस्कृत करती है, प्रोत्साहित करती है। और न्यायपालिका में हेराफेरी के भी उदाहरण हैं।
लेकिन अब चाहता हूँ आपके सामने पेश करू उन सभी प्रमुख राजनेताओं की एक सूची जिन पर फर्जी मुठभेड़ों के आरोप लगाये गए थे।
बेशक, हम शुरुआत तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से करते हैं। ज़किया जाफ़री ने उनसे याचिका दायर की थी।
फिर हमारे पास अमित
शाह हैं। वे गृह मंत्री थे। उन पर फ़र्ज़ी मुठभेड़ों का आरोप था। साथ ही, सोहराबुद्दीन के जबरन
वसूली गिरोह में शामिल होने का भी आरोप था। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी अभय चूड़ास्मा भी इसमें उनके सहयोगी थे। अमित शाह को २०१० में गिरफ़्तार किया
गया था।
फिर माया कोडनानी हैं। वे
एक विधायक थीं। उन्होंने अपनी पिस्तौल से गोलियाँ चलाईं और नरसंहार के दौरान भीड़
को उकसाया। उन्हें २०१२ में २८ साल की कारावास की सज़ा सुनाई गई थी।
चूँकि हम राजनेताओं की
बात कर रहे हैं, मैं दो कांग्रेसी
नेताओं का नाम भी लेना चाहूँगा। अर्जुन मोढवाडिया और शक्ति सिंह गोहली, जिनका ज़िक्र आपने
किताब में किया है। इन दोनों ने फ़र्ज़ी मुठभेड़ों और नरसंहार से निपटने के तरीक़े पर लगातार सवाल उठाए और
सरकार की आलोचना की।
ख्रिस्तोफ : नहीं, निश्चित रूप से
विपक्षी दल ने अपना काम किया और एनजीओ वालों ने भी। मेरा मतलब है कि न केवल एनजीओ, बल्कि पत्रकारों
द्वारा भी लगातार जाँच चल रही थी। दरअसल, हम सोहराबुद्दीन की कहानी के बारे में एक पत्रकार की वजह से जानते हैं जिसने
हर तरह की धमकियों का विरोध किया। और हां, पुलिसकर्मी भी इसमें
शामिल है जिन्होंने विरोध किया। मैंने सतीश वर्मा का ज़िक्र किया है। वह निश्चित
रूप से एक बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे।
हां, प्रशांत दयाल ही वह
व्यक्ति हैं जिनका मैंने उल्लेख किया था।
अनुबंध : चूँकि आपने इनका ज़िक्र किया है, इसलिए मैं अपनी स्क्रीन साँझा कर रहा हूँ।
प्रशांत दयाल ही वो
व्यक्ति हैं जिन्होंने फर्जी मुठभेड़ों के मामले में सच को उजागर किया। अन्य लोगों ने नरसंहार
पर अधिक ध्यान दिया। और हां, सेवाभावी कार्यकर्ताओं ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। यहाँ आशीष खेतान, सिद्धार्थ वरदराजन, राणा अयूब और प्रशांत
दयाल भी हैं, जिनका आपने ज़िक्र
किया था।
मैंने उन गैर-सरकारी संगठनों की भी एक छोटी सूची बनाई जो इसमें शामिल थे। हमारे पास "सिटीज़ंस फ़ॉर पीस एंड जस्टिस", अनहद (एक्ट नाउ फ़ॉर हार्मनी एंड डेमोक्रेसी), और जनविकास हैं। और कार्यकर्ताओं में, तीस्ता सीतलवाड़, हर्ष मदार, शबनम हाशमी, गगन सेठी, फादर सेड्रिक प्रकाश, मुकुल सिन्हा। शिव विश्वनाथन, जिन्होंने आर.के. राघवन के साथ मिलकर एसआईटी अध्यक्ष को पत्र लिखा था। हमारे पास मलिका साराभाई, जावेद अख्तर, बी.जी. वर्गीस और कुछ अन्य लोग हैं।
ख्रिस्तोफ : नहीं, यह एक बेहतरीन सूची है।
मैं बाकी लोगों को उजागर नहीं करना चाहता।
अनुबंध : ठीक है, कोई बात नहीं। मैंने उन रास्वसं-विहिंप (राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ – विश्व हिंदू परिषद) विचारकों और कार्यकर्ताओं की भूमिकाएँ भी संकलित की हैं जो या तो आरोपी थे या इसमें शामिल थे।
अब मैं फिर से नरसंहार
की बात कर रहा हूँ। यहाँ प्रवीण तोगड़िया, विहिंप नेता, बाबू बजरंगी हैं। मैं
बाबू बजरंगी के बारे में थोड़ी बात करना चाहूँगा क्योंकि वे... जैसा कि आपने हमारी
पिछली बातचीत में बताया था, भाजपा एक एकरूप परिवार नहीं है जैसा कि हमें बताया जाता है। नरेंद्र मोदी और विहिंप (विश्व
हिंदू परिषद), तोगड़िया के बीच कई
बार तनाव होता था। और यह इस हद तक है कि गुजरात सरकार बाबू बजरंगी की सजा रद्द करने के खिलाफ
गई थी! तो, यह बात तो स्पष्ट है। आज, मुझे लगता है कि वे कारावास से बाहर हैं।
ख्रिस्तोफ : हाँ।
अनुबंध : अगले हैं स्वामीनाथन
गुरुमूर्ति। वे रास्वसं से जुड़े हैं।
इसमें जयदीप पटेल भी हैं। वह एक विहिंप नेता है जिसने नरोदा इलाके में
हमलावरों का नेतृत्व किया था।
क्या आप इन विचारकों
और कार्यकर्ताओं पर कोई टिप्पणी करना चाहेंगे?
ख्रिस्तोफ : वे सब वास्तव में विचारक
नहीं हैं। गुरुमूर्ति, हाँ। बाकी लोग ज़्यादा कार्यकर्ता हैं। और एक ओर, उन्होंने "गंदा काम" किया, खासकर बाबू बजरंगी ने।
संयोग से, बाबू बजरंगी गुजरात में न केवल मुसलमानों से
लड़ रहे थे, बल्कि अंतर्जातीय
विवाहों से भी लड़ रहे थे। जब हम "लव जिहाद"
के प्रश्न पर विचार करते
हैं, तो आपको पता चलता है।
लव जिहाद आज भारत में लव जिहाद संघ परिवार की मुख्य लड़ाई बन गई है। हालाँकि, यह गुजरात में मोदी के
केंद्र में सत्ता संभालने से कई साल पहले से मौजूद था। यह सत्ता के लिए
प्रतिस्पर्धा में व्यक्तियों के बीच तनाव को भी दर्शाता है। निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी और
प्रवीण तोगड़िया एक तरह की प्रतिस्पर्धा में थे। फिर भी, इसमें कुछ और भी लोग थे। उदाहरण के लिए, संजय जोशी और नरेंद्र मोदी भी एक तरह की प्रतिस्पर्धा में थे। और हाँ, यह दर्शाता है कि संघ
परिवार के भीतर वास्तव में कुछ विविधता, कुछ तनाव है।
मोदी की जीत हुई और
कोई भी उनके सत्ता में आने का विरोध नहीं कर सका। निश्चित रूप से, २००७ के बाद, जब रास्वसं ने उनका
समर्थन करने से इंकार कर दिया। २००७ में, चुनाव प्रचार के दौरान
रास्वसं के कई लोग उनका समर्थन नहीं कर रहे थे। फिर भी, वे जीतते हैं और बड़े
अंतर से जीतते हैं। इसलिए, भारत किसान संघ, जो नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ने वाला एक संगठन था,वह भी बेअसर हो गया। उसके बाद, संघ परिवार के भीतर
केशुभाई पटेल के अलावा कोई वास्तविक विपक्ष नहीं बचा है। केशुभाई पटेल भाजपा के
भीतर सत्ता हासिल करने की कोशिश करेंगे और निश्चित रूप से, उन्हें हाशिए पर डाल
दिया जाएगा।
अनुबंध : इस प्रतिद्वंद्विता का
एक और उदाहरण और आज यह शायद अविश्वसनीय लग सकता है, लेकिन ये सच है। आपने लिखा है कि नरेंद्र मोदी ने
कथित तौर पर अतिक्रमण विरोधी अभियान में विहिंप के खिलाफ बढ़त बनाने के लिए गुजरात
में सौ से ज़्यादा मंदिरों को ध्वस्त कर दिया! और उस वक्त विहिंप नेताओं ने उन
पर हिंदू विरोधी होने का भी आरोप लगाया था। आज इस बात पर यकीन करना शायद बहुत मुश्किल है।
आगे बढ़ते हुए, अब मैं २००२ के नरसंहार और फ़र्ज़ी मुठभेड़ के आरोपी पुलिस अधिकारियों के कुछ नाम लेना चाहूँगा। ख्रिस्तोफ, जैसा कि आप जानते हैं, इनमें से ज़्यादातर पुलिस अधिकारियों पर न तो मुक़दमा दर्ज किया गया है और न ही इनकी कोई निष्पक्ष सुनवाई हुई है। इनमें से कई तो बरी भी हो गए हैं। इसलिए, कम से कम आपकी लिखी इस किताब के ज़रिए, उन नामों को उजागर करना ज़रूरी है। मैं उन्हें पढ़ूँगा और फिर कुछ अन्य प्रतिबद्ध पुलिस अधिकारियों के नाम भी पढ़ूँगा, उसके बाद हम रुकेंगे।
तो, के.एम. वाघेला हैं, इंस्पेक्टर तरुण
बारोट। मुझे अब किसलिए यह याद नहीं है लेकिन उन्होंने मुंबई के पत्रकार केतन तिरोडकर के साथ काम किया
था। उसके बाद जे. जी. परमार हैं -
इंस्पेक्टर, नोएल परमार - पुलिस
अधिकारी, पी.बी. गोंदिया -
पुलिस अधिकारी, रमेश पटेल - पुलिस
अधिकारी। राजीव कुमार हैं - गुजरात में केंद्रीय खुफिया ब्यूरो (सीबीआई) के
संयुक्त निदेशक, आईबी (सूचना ब्यूरो)
अधिकारी, सीबीआई द्वारा इशरत
जहां मामले में आरोपी। फिर अभय चूड़ासमा हैं - अमित शाह और सोहराबुद्दीन के साथ जबरन वसूली मामले में
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी। यहाँ आशीष भाटिया हैं - सूरत में पूर्व अतिरिक्त पुलिस आयुक्त - एसआईटी नियुक्ति। उसके बाद शिवानंद झा हैं - अहमदाबाद के
पूर्व अतिरिक्त पुलिस आयुक्त - गृह सचिव एसआईटी नियुक्ति । आपके पास के.जी. एर्दा है, गुलबर्ग सोसाइटी क्षेत्र के प्रभारी पुलिस अधिकारी। बाद में, वंजारा - अपराध शाखा
के जांच प्रमुख - आतंकवाद विरोधी दस्ते के प्रमुख। पी.पी. पांडे - अपराध शाखा के
प्रमुख। नरेंद्र के. अमीन, वंजारा के सहायक, जे.जी. परमेर, इंस्पेक्टर। आपके पास
एम.के. टंडन - पुलिस अधिकारी, आपके पास के.के. मैसूरवाला, नरोदा पाटिया क्षेत्र के प्रभारी पुलिस निरीक्षक, राकेश अस्थाना, एसआईटी का हिस्सा - २०१६ में सीबीआई के अतिरिक्त निदेशक बने। फिर वाई.सी. मोदी हैं जिन्होंने गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका की जांच की, एसआईटी द्वारा नियुक्त, हरेन पांड्या की हत्या
की जांच की। फिर २०१५ में अतिरिक्त सीबीआई निदेशक बने। १९८८ बैच के गुजरात कैडर के प्रवीण सिन्हा, २०२१ में सीबीआई के
कार्यवाहक निदेशक बने।
और अंतिम स्लाइड प्रतिबद्ध पुलिस अधिकारियों के बारे में है।
आपके पास आर.बी.
श्रीकुमार हैं, जिनके पास आईपीएस
कैडरों की पूरी सूची है, जो लोग सारे दुष्कर्म में शामिल थे। अमित शाह और नरेंद्र मोदी तक जिनकी पहुंच और निकटता थी। सतीश वर्मा - एसआईटी सदस्य - ने फर्जी मुठभेड़ों की
जांच की, अन्य एसआईटी सदस्यों
पर निष्पक्ष तरीके से जांच नहीं करने देने का आरोप लगाया। उसके बाद यहाँ गीता जौहरी हैं। वह महानिरीक्षक थीं, गुजरात की पहली महिला
अधिकारी, जो सीआईडी का हिस्सा
थीं। उनकी रिपोर्ट में उल्लेख किया गया था, "राज्य सरकार की मिलीभगत श्री अमित शाह के रूप में जो गृह राज्य मंत्री थे और कहा कि यह मामला कानून के शासन का पूरी तरह से मजाक उड़ाता है और शायद यह राज्य सरकार के एक
बड़े अपराध में शामिल होने का का एक उदाहरण है।" उन्होंने राजनेताओं, अपराधियों और
पुलिसकर्मियों के बीच मिलीभगत की ओर इशारा किया।
संजीव भट्ट। हमने उनके
बारे में बात की। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी। उन्होंने नरेंद्र मोदी के खिलाफ बयान दिया
और २७ फरवरी २००२ को मोदी के आवास पर हुई कुख्यात बैठक का ज़िक्र किया। पुलिस निरीक्षक तीर्थ
राज, जिन्होंने समीर खान
मामले की जाँच की थी। पुलिस अधीक्षक राहुल शर्मा ने नानावटी आयोग को बातचीत की
सीडी सौंपी, और आश्चर्यजनक रूप से
आयोग ने उनसे इसकी माँग ही नहीं की थी! इससे पहले अप्रैल २००२ में वे पुलिस उपायुक्त थे।
महानगर मजिस्ट्रेट एस.पी. तमांग, उप महानिरीक्षक (डीआईजी) रजनीश राय, फर्जी मुठभेड़ों की जाँच कर रहे थे और डी.जी. वंजारा को गिरफ्तार करने के
प्रभारी थे।
इस लंबी सूची के लिए
क्षमा करें। हालाँकि, मुझे लगता है कि यह महत्वपूर्ण थी। कृपया अपनी टिप्पणियाँ दें।
ख्रिस्तोफ : खैर, जो लोग और जानना चाहते
हैं उनके लिए किताब में
सभी विवरण और स्रोत मौजूद हैं। इससे पता चलता है कि सब कुछ पहुंच योग्य था। किताब
केवल खुले स्रोतों पर आधारित है। इसमें कोई भी गोपनीय दस्तावेज़ नहीं है, और जब होता भी है, तो उसे पूरी तरह से सुलभ होने के लिए अनुलग्नक (Annex) में उद्धृत किया गया
है। मुझे यह बात इसलिए दिलचस्प लगी क्योंकि जब २०१३ में यह किताब प्रकाशक
को सौंपी गई थी, तब उनके लिए यह प्रकाशन योग्य नहीं
थी, जबकि सब कुछ पहले से
ही सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्ध था! इसलिए, मुझे लगता है कि यह समझना दिलचस्प होगा कि मोदी के गुजरात जैसी कहानी को
गुजरातियों ने पहले और बाद में गुजरात बाहर स्वीकार की जाती है। भारतीय इतिहास का यह कैसा क्षण है और इसे इतने प्रभावी ढंग से क्यों मिटा
दिया गया? मुझे लगता है कि अगली
पीढ़ी आज आपने जो कहा है, उसका आधा भी नहीं जान पाएगी।
अनुबंध : इसीलिए आपकी पुस्तक
अनमोल है!
ख्रिस्तोफ : हाँ, बिल्कुल, किताबें इसी काम के
लिए होती हैं - अभिलेखागार। यह किताब मेरे एक पाकिस्तानी सहयोगी, के.के. अज़ीज़ की
किताब के बराबर है। उनकी किताब का शीर्षक था "इतिहास की हत्या"। इतिहास को कैसे मिटाया जाता है। हम किताबें ठीक इसी कारण लिखते हैं, समझने के लिए, व्याख्या करने के लिए, विश्लेषण करने के लिए, लेकिन साथ ही न भूलने
के लिए, याद रखने के लिए भी।
यही शिक्षाविदों का एक और काम है।
अनुबंध : ख्रिस्तोफ, मेरे पास आप को पूंछने के लिए और भी कई सवाल थे, लेकिन अब मैं उन्हें
पाठकों पर छोड़ता हूँ कि वे इस किताब में अपने जवाब खुद खोजें। यह किताब जो की एक बेहद बढ़िया किताब है।
एक बार फिर, मेरे साथ वार्तालाप करने के लिए आपका बहुत-बहुत
धन्यवाद। क्योंकि किताब लिखना और उसे पढ़ना, ये दो अलग-अलग अनुभव हैं। और जब लेखक खुद आपसे इस पर चर्चा कर रहा हो, तो यह बहुत खास होता
है! मैं खुद को बहुत खुशकिस्मत मानता हूँ कि आपने मुझ पर भरोसा जताया और अपना समय
दिया। इसके लिए मैं आपका बहुत शुक्रिया अदा धन्यवाद करता हूँ।
मुझे आशा है कि हमें
ऐसे और भी कई अवसर मिलेंगे।
धन्यवाद, ख्रिस्तोफ।
ख्रिस्तोफ : धन्यवाद।
ख्रिस्तोफ जाफ्रलो
ख्रिस्तोफ जाफ्रलो फ़्रांसीसी विदेश मंत्रालय के Direction de la Prospective में स्थायी सलाहकार हैं।
उन्होंने भारत पर २४ से ज़्यादा और पाकिस्तान पर ७ किताबें लिखी हैं।
ख्रिस्तोफ जाफ्रलो प्रमुख भारतीय समाचार प्रकाशनों जैसे द हिंदू, द इंडियन एक्सप्रेस, द वायर में लगातार स्तंभकार हैं।
अनुबंध काटे पेरिस स्थित अभियंता हैं और “Les Forums France Inde” के सह-संस्थापक हैं।
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