Sunday, September 21, 2025

शारजा शहाबुद्दीन: कला और राजनीति विज्ञान के माध्यम से एक अंतरसांस्कृतिक यात्रा

                                         

                                                                


                                                                                     भाषांतर: प्रताप माने

अनुबंध: नमस्ते! मेरा नाम अनुबंध काटे है और मैं पेरिस स्थित अभियंता हूँ। मुझे आज एक बहुत ही ख्यातनाम और ऊर्जावान व्यक्ति के साथ होने पर बहुत खुशी हो रही है। उनका नाम है शारजा शाहबुद्दीन! नमस्ते शारजा, आपका स्वागत है!

शारजा: नमस्कार, मुझे यहां बुलाने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

अनुबंध: मुझे बहुत खुशी है! मैं अपने चैनल पर अक्सर ऐसी हस्तियों को आमंत्रित करने की कोशिश करता हूँ जिन्होंने कोई किताबें लिखी हों। आपके मामले में अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। हालाँकि, हम हाल ही में पेरिस में मिले थे और मैं आपके काम, आपकी पृष्ठभूमि और आपकी शिक्षा से काफी प्रभावित हुआ।

अपने श्रोताओं के सामने आपका संक्षिप्त परिचय देते हुए, मैं कहूँगा कि आप एक राजनीति विज्ञानी हैं और दक्षिण एशियाई एवं हिमालयन अध्ययन केंद्र (Center for South Asian and Himalayan Studies - CESAH) में अनुसंधान सहयोगी हैं। आपने भरतनाट्यम सीखा है और आप इसे सिखाती भी हैं। इसके अलावा, आपने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत भी सीखा है। आपके परिधान ब्रांड का नाम "शारजा" है। आपने केनिया, बांग्लादेश, फ्रांस और कई अन्य देशों में काम किया है। आइए, आपके नाम से शुरुआत करते हैं। जैसा कि आपने मुझे पहले बताया था, हम इसका उच्चारण दो तरह से कर सकते हैं, है ना? फ्रेंच में इसे "शारजा" और बंगाली में "शोरजा" कहते थे। क्या यह सही है?

शारजाहाँ, यह " शोरजा" बंगाली के "चर्यापद" से है, जो संस्कृत से आया है। और फ्रेंच में "शारजा" यह हमें इस बात की भी झलक देता है कि एक ही नाम से आप कैसे अलग-अलग व्यक्तित्व पा सकते हैं। यह आव्रजन (immigration), प्रवासन (migration) नामकरण के कुछ अस्पष्ट पहलुओं को भी दर्शाता है... यह सच है कि शारजा, शोरजा का फ्रेंच लिप्यंतरण बन गया, हालाँकि बांग्लादेश में बहुत से लोग "चर्यापद" नहीं जानते। जो लोग जानते हैं, वे पहले से ही एक तरह के शैक्षणिक, साहित्यिक क्षेत्र में हैं। "चर्यापद" उस पुस्तक का नाम है जो १२ वीं शताब्दी में नेपाली रूप में पाई गई है। यह मूलतः संस्कृत से पहले की वर्णमाला है। कविताओं के पहले छंद यही "चर्यापद" थे।

अनुबंध: शुक्रिया। मुझे लगता है कि मेरे दर्शकों को इस बात का अंदाज़ा हो गया होगा कि आप इतिहास भी पढ़ाती हो!

यह विषय हमारे दूसरे सत्र की बातचीत का भी हिस्सा हो सकता है, जहाँ आप हमें बांग्लादेश की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, धर्मनिरपेक्षता, इस्लामवाद और उसके अन्य पहलुओं के बारे में बता सकती हो बहरहाल, आज यह सत्र आपको, आपके काम और आपकी अब तक की यात्रा को समर्पित है। आइए, शुरू करते हैं।

आप पेरिस में रहती हो यहीं आपका जन्म हुआ है और आपके माता-पिता बांग्लादेश से आए हैं। क्या आप हमें अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि, अपने बचपन और आप कहाँ से हों, इसके बारे में बता सकते हैं?

शारजा: हाँ, बिल्कुल। इस प्रश्न के लिए धन्यवाद। मेरे माता-पिता दोनों बांग्लादेश से हैं। हालाँकि, मेरा जन्म १९९१ में पेरिस में हुआ था। मेरे पिता एक चित्रकार हैं। एक कलाकार होने के साथ-साथ बांग्लादेश में वह एक स्वतंत्रता सेनानी भी थे उन्होंने १९७१ के युद्ध में एक स्वतंत्रता सेनानी, एक "मुक्ति योद्धा" के रूप में भाग लिया था। हालाँकि, वे पेरिस में "ललित कला" सिखने  आए थे। इसीलिए वह १९७४ में यहाँ आए थे। बाद में, जब वह एक यात्रा के दौरान बांग्लादेश वापस गए, तो उन्होंने मेरी माँ से शादी कर ली। मेरी माँ एक लेखिका और पत्रकार हैं। वे वापस आकर पेरिस में बस गए। वे दोंनो यहाँ के बौद्धिक और कलात्मक माहौल से बहुत खुश थे। इसके अलावा कई अन्य राजनीतिक कारणों से भी। मुझे लगता है कि उस समय बांग्लादेश में हुए बदलावों के कारण। मेरी बहन(जो मुझसे साढ़े तीन साल बड़ी है)और मैं, हम पेरिस में ऐसे माता-पिता के साथ पले-बढ़े हैं जो घर पर हमेशा हमसे बंगाली में बात करते थे। इसलिए, बंगाली और हमारी बांग्लादेशी, बंगाली पहचान हमारे जीवन और शिक्षा का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा रही है।

अनुबंध: आपने यह भी बताया कि आपके पिता एक स्वतंत्रता सेनानी थे। है ना? क्या वह बांग्लादेश की अवामी लीग पार्टी के लिए काम करते थे?

शारजा: खैर, उन्होंने कभी पार्टी के लिए काम नहीं किया। वह बिल्कुल भी राजनेता नहीं थे, लेकिन उनकी भूमिका एक तरह से राजनीतिक हो गई थी।

वैसे बस एक छोटीसी याद दिलाने के लिए। १९४७ में भारत के विभाजन के बाद, और फिर १९४७  से १९७१ तक, पाकिस्तान पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में विभाजित हो गया था। जो वर्तमान बांग्लादेश है और पश्चिमी पाकिस्तान, जो वर्तमान पाकिस्तान है, उसमें पाकिस्तान के दोनों हिस्सों के बीच २००० किलोमीटर की दुरी होने का यह एक पागल, असंगत विचार था। और पाकिस्तान के केंद्रीय प्रशासनद्वारा पूर्वी पाकिस्तानियों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया गया। इसीलिए पाकिस्तानी सेना द्वारा महीने तक युद्ध चला था, जिसे जमात इस्लामी मिलिशिया का समर्थन प्राप्त था। बाद में वह बांग्लादेश में एक इस्लामवादी राजनीतिक दल बन गया था। इन नौ महीनों के दौरान,  से मिलियन लोग मारे गए थे जबकि २००,००० से ४००,००० महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया था

इस प्रकार, यह युद्ध बांग्लादेश के लोगों द्वारा पाकिस्तानी सेना और इन मिलिशिया के विरुद्ध लड़ा गया। इसमें बंगाली लोगों के साथ-साथ आदिवासी भी शामिल थे। इस युद्ध का परिणाम बांग्लादेश की मुक्ति थी। इस दौरान, मेरे पिता ललित कला विद्यालय में ललित कला की पढ़ाई कर रहे थे। यहीं पर उन्होंने चारुकोला (ढाका)में कला की शिक्षा ली। मेरे पिता उस समय के कई अन्य युवाओं की तरह एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में इस आंदोलन में शामिल हुए। यहीं से उनका राजनीतिकरण हुआ। आज बांग्लादेश में स्थिति बहुत कठिन है क्योंकि पिछली गर्मियों में शेख हसीना का शासन गिर गया था। हालाँकि, उस समय, बांग्लादेश के सबसे पुराने राजनीतिक दलों में से एक, "अवामी लीग" की स्थापना हुई थी। इसकी स्थापना १९४९ में हुई थी और यही वह राजनीतिक दल था जिसने शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में बांग्लादेश की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया। मेरे पिता उनके विचारों के बहुत करीब थे। शेख मुजीबुर रहमान(जिन्हें "बंगबंधु" भी कहा जाता है)ने उन्हें पेरिस जाने की सलाह दी थी। हालाँकि, मेरे पिता ने कभी भी एक उम्मीदवार के रूप में प्रत्यक्ष राजनीति नहीं की। वह हमेशा एक कलात्मक और बुद्धिजीवी व्यक्ति की भूमिका में रहे हैं।

अनुबंध: आपकी बातें मेरे जैसे उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण है जो भारत से आते हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं कि जो पश्चिम से आते हों। ऐसा समझिये कि उन लोगों के लिए जो भारत के मध्य या दक्षिणी हिस्से से आते हैं, जहाँ १९७१ के युद्ध का इतिहास बहुत कम या अपर्याप्त रूप से जाना जाता है। उदाहरण के लिए, कुछ साल पहले मैं त्रिपुरा(अगरतला)गया था और वहाँ मुझे त्रिपुरा राज्य संग्रहालय को भेंट देने का मौका मिला वहाँ उस दौर का विस्तार से वर्णन किया गया था। और मैंने इस इतिहास पर हुत सी नई बातें सिंखी

फिरसे आप पर वापस आते है। क्या आप हमें अपनी शुरुआती शिक्षा के बारे में कुछ बता सकते हैं? मेरा मतलब है, अपने Lyceé(उच्च माध्यमिक)तक, जहाँ आप क्लोद मोने (Claude MONNET) उच्च माध्यमिक विद्यालय में थी आपका ९० के दशक में पेरिस में पले-बढ़े होने का अनुभव कैसा रहा? बांग्लादेश से होने के नाते? कृपया हमें बताएँ।

शारजा: मुझे लगता है कि मैं शिक्षा के संबंध में दो दिलचस्प पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर सकती हूँ। पहला है भाषा। हम घर पर बंगाली बोलते थे। मेरी माँ ने हमें वर्णमाला लेखन, पढने  आदि के बारे में सिखाया... इस प्रकार, मेरी मातृभाषा बंगाली है और मैंने किसी तरह फ्रेंच सीख ली है क्योंकि हम एक फ्रांसीसी ढाँचे में थे। फिर भी, मेरी माँ ने हमें अंग्रेजी सिखाने पर ज़ोर दिया क्योंकि हमारे यहाँ बहुत सारे मेहमान आते थे, मेरे माता-पिता के बहुत सारे दोस्त हमसे मिलने आते थे। इस प्रकार, मैंने बहुत छोटी उम्र में ही अंग्रेजी सीख ली। इसके बाद, जो सबसे महत्वपूर्ण था वह बंगाली थी। मुझे यह बहुत पसंद थी क्योंकि मैं इसे अपनी बहन के साथ सीख रही थी। जब मैं शायद साल की थी, तब वह पहले से ही साल की थी। मैं हर समय अपनी माँ और बहन के साथ रहती थी। लगभग या साल की उम्र में, हमारे लिए जो थोड़ा कठिन था वह यह था कि सप्ताहांत में हमें हमेशा बंगाली में एक पृष्ठ लिखना पड़ता था। इसलिए, यह एक अतिरिक्त काम था। अब यह बहुत अजीब लगता है क्योंकि उस समय हमारे लिए  यह अनिवार्य सा था। यह हमारे लिए एक कर्तव्य था और हमें लिखना पड़ता था। इस प्रकार, हम अभ्यास कर सकते थे।

आज मुझे समझ रहा है कि हमें ऐसा क्यों करना पड़ा, लेकिन यह दूसरे बच्चों की तुलना में थोड़ा ज़्यादा कठिन था क्योंकि हमें उनसे ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती थी। मेरे लिए, मेरी माँ एक अग्रणी और दूरदर्शी थीं क्योंकि वह हमेशा हमें कहती थीं, तुम्हारी बंगाली पहचान एक मूल्यवान चीज़ होगी। जैसे तुम्हें अभ्यास करने की ज़रूरत है, तुम्हें अपनी पहचान, अपनी जड़ों आदि को जानने की ज़रूरत है। इसलिए, बचपन से ही मुझे अपने बंगाली होने पर बहुत गर्व था। हम पेरिस के १३ वें उपनगर में पले-बढ़े। यह "place d’Italie" और "Nation " के पास है। ऐतिहासिक रूप से यह चीनी और वियतनामी लोगों का इलाका रहा है। तब से आज तक यह काफी बदल गया है, हालाँकि अभी भी यहाँ बहुत सारे चीनी और वियतनामी भोजनालय हैं। इसलिए, मैं इस ढाँचे में बहुत सहजता से पली – बढ़ी हूँ, यह जानते हुए कि यह इलाका दोहरी पहचान वाले लोगों के लिए है। पिछले ३० सालों में यहाँ एक और दिलचस्प बात बदली है कि उस समय इस इलाके में कोई बंगाली नहीं था। अब यह काफी बदल गया है।

हम पुराने-नए लोग थे, लेकिन एक बहुत अच्छे तरीके से। मुझे बाकी बच्चोंसे थोड़ा अलग होने पर बहुत गर्व महसूस हुआ करता था मुझे हमेशा लगता था कि मेरा अलग होना मेरे लिए कुछ अच्छा होगा। कि मैं इसका भरपूर फ़ायदा उठा सकती हूँ। खैर, बचपन में मैंने ऐसा नहीं सोचा था। हालाँकि, मैं दोहरी पहचान वाली व्यक्ति होने में सहज थी।

अनुबंध: ठीक है। मुझे लगता है कि पहचान का यह सवाल बहुत अहम है। हम अपनी पहचान को किस नज़रिए से देखते हैं और दूसरे इसे किस नज़रिए से देखते हैं। हम इस पर थोड़ी देर बाद बात करेंगे, लेकिन भाषाओं के सवाल पर वापस आतें है मुझे पता है कि आपने स्कूल में लैटिन भी सीखी है, है ना? क्या आपने और भी कोई भाषाएँ सीखी हैं? और क्या आप बंगाली में भी पढ़ती-लिखती हों? अगर हाँ, तो किस नित्यता से?

शारजा: खैर, दोनों प्रश्न आपस में जुड़े हुए हैं क्योंकि मैंने बचपन में ही बंगाली सीखी थी। बचपन से ही मुझे भाषाओं से बहुत लगाव रहा है। मेरे माता-पिता दोनों ही साहित्य और कला जगत से हैं। इसके अलावा, बंगाली अब दुनिया में छठी या आठवीं सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। हालाँकि, जब मैं छोटी थी, फ्रांस में यह एक अनोखी भाषा थी। मुझे हमेशा से भाषाओं से बहुत लगाव रहा है और इसीलिए मैंने १८ साल की उम्र तक लैटिन भाषा सीखी। मैं लैटिन में बिल्कुल भी अच्छी नहीं थी, लेकिन स्नातक स्तर पर मेरे अच्छे अंक थे। मैं इसमें तनी अच्छी नहीं थी, लेकिन मुझे यह बहुत पसंद था!

हम अपने परिवारों में खूब पढ़ते रहे हैं। इसलिए, मुझे यह भी पता था कि लैटिन भाषा व्युत्पत्ति (etymology, शब्दावली, लेखन आदि के लिहाज से महत्वपूर्ण है। जब आप लैटिन भाषा सीखते हैं, तो यह बेहतर है कि आपसे कोई गलती हो। मैं लैटिन भाषा से आकर्षित थी और मुझे हमेशा से उन भाषाओं से भी लगाव रहा है जिन्हें ज़्यादा लोग नहीं बोलते। इसलिए, बाद में जब मैं सियोंस पो में थी, और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई कर रही थी, तो मैंने चार साल तक हिब्रू भाषा सीखी।

खैर, अब मैं काफी हद तक उसे खो चुकी हूँ क्योंकि मुझे अभ्यास की ज़रूरत है। फिर भी, मैंने उसे सिखा फिर से, उस वक्त भी मुझे उसमें उतनी गति नहीं थी, लेकिन मुझे उसे पढ़ना बहुत पसंद था। हमारे सियोंसपो के समय में, हमें एक साल विदेश में बिताना था। लेकिन मैं नहीं जाना चाहती थी... खैर, मुझे बहुत अफ़सोस है इसलिए क्योंकि मैं अब कुछ कहने जा रही हूँ और शायद कुछ लोगों पर निशाना भी साधूँगी, लेकिन मैं वास्तव में अमेरिका नहीं जाना चाहती थी। मैं सोचती थी, जब दुनिया में इतने सारे देश हैं तो मैं अमेरिका क्यों जाऊँगी!

खास तौर पर, क्योंकि मेरी सोच उस वक्त इतनी गहरी नहीं थी। १९७१ के युद्ध के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तानी सेना का समर्थन किया था। इसलिए, मैं सोचती थी कि मैं वहाँ नहीं जाना चाहती। मैं अंग्रेजी बोलना चाहती थी, लेकिन किसी ऐसी जगह जाना चाहती थी जहाँ मुझे उस जगह के बारे में कुछ भी पता हो। मैं केनिया से बहुत आकर्षित थी। इसलिए, जब मैं केनिया में थी, तो मैंने स्वाहिली भाषा सीखना शुरू कर दिया।

अनुबंध: क्या बात है!

शारजा: लेकिन मैं हिब्रू या स्वाहिली नहीं बोल पाती, हालाँकि मैंने इसे सीख लिया है। कम से कम मैं उनसे जुड़ तो पाई। इन भाषाओं की संरचना, सोंच, व्याकरण और ध्वनि के साथ। फ़िलहाल, मैं बंगाली बोलती हूँ, जिसे मैं पढ़ती और लिखती हूँ। मैं INALCO (Institut National des Langues Orientales), इंस्टीट्यू नास्योंनाल  दे लोंग ओरिओंताल में इसे थोड़ा-बहुत पढ़ाती भी हूँ। मेरी माँ के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण पहलू था। वह हमेशा कहती थीं, "अगर आप किसी भाषा को पढ़ और लिख नहीं सकते, तो आप यह नहीं कह सकते कि आप उसे बोलते हैं।" तो, बंगाली, अंग्रेज़ी और फ़्रेंच, असल में। मैं स्पेनिश सीख रही हूँ ताकि मैं उसे अच्छी तरह समझ सकूँ और इस्तेमाल कर सकूँ। हालाँकि, स्वाहिली और हिब्रू, इन पर हम चर्चा कर सकते हैं, लेकिन मुझे यकीन नहीं है कि मैं इसके साथ कोई शैक्षिक काम कर पाऊँगी। संक्षेप में, मुझे इन भाषाओं का अध्ययन करने में बहुत मज़ा आया।

अनुबंध: आप मेरे लिए बहुभाषी हैं और कम से कम हम यह तो कह सकते हैं कि आपको विविध भाषाओं में गहरी रुचि है।

शारजा: हाँ।

अनुबंध: यह तो पक्का है। अब बात करते हैं lyceé(उच्च माध्यमिक विद्यालय)क्लोद मोने की। और क्लोद मोने, भारत में कम से कम कुछ लोग इस पुनर्जागरण (Renaissance) कलाकार को जानते हैं। इसी स्कूल में आपने लैटिन भाषा सीखी। आपने रंगमंच और दर्शनशास्त्र (psychology) दोनों की शिक्षा ली। आपने अपनी स्नातक की पढ़ाई वहीं से की। और स्नातक के दौरान, दर्शनशास्त्र आपके लिए एक अनिवार्य विषय था, है ना?

शारजा: हाँ।

अनुबंध: भारतीय दर्शकों के लिए यह बिल्कुल नया अनुभव है। तो, क्या आप हमें lyceé क्लोद मोने में अपने अनुभव के बारे में बता सकती हैं?

शारजा: हाँ, मैं दर्शनशास्त्र से शुरुआत करूँगी। अब फ़्रांस की शिक्षा व्यवस्था विकल्पों के मामले में काफ़ी बदल गई है। हर किसी के पास एक जैसे पर्याय नहीं होते हालाँकि, यह सच है कि हमारे लिए दर्शनशास्त्र की शुरुआत उच्च माध्यमिक विद्यालय में ही हो गई थी। मैं यहाँ यह कहना चाहूँगी कि दर्शनशास्त्र असल में आपके शिक्षक पर निर्भर करता है। क्योंकि यह चीज़ों को समझने का एक अलग तरीका है। मुझे लगता है कि हमें इसे बहुत पहले, उच्च माध्यमिक विद्यालय से बहुत पहले ही सीख लेना चाहिए। मैं सिर्फ़ उन चीज़ों पर ध्यान केंद्रित करूँगी जो मेरे लिए वाकई ज़रूरी रही हैं। ख़ासकर थिएटर के विकल्प पर। क्योंकि मेरा उच्च माध्यमिक विद्यालय, lyceé क्लोद मोने... और यहाँ मैं अपने विद्यालय की बहुत सराहना करूँगी क्योंकि वह बहुत अच्छा था। वह उन गिने-चुने विद्यालयों में से एक था जहाँ कई विकल्प थे। उनके पास संगीत का विकल्प था, रंगमंच का विकल्प था, यानी उनके पास इनके लिए शिक्षक थे। बहुत सारे उपकरण भी थे। इसके साथ ज़रूरी नहीं कि बहुत ज़्यादा पैसा हो, लेकिन कम से कम शिक्षकों का नाटक को सिखाने पर थोड़ा ध्यान ज़रूर था, वगैरह। संयोग से, दूसरे उच्च माध्यमिक विद्यालयों में ऐसा नहीं है। क्योंकि इसमें पैसा लगता है। हर कोई इस तरह की चीज़ों में निवेश नहीं करना चाहता था इसके अलावा, lyceé क्लोद मोने एक ऐसा विद्यालय था जहाँ हम सभी ने खूब आनंद लिया। मेरे सबसे अच्छे दोस्त, जो आज भी बने रहें हैं, वे सभी अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए थे। थिएटर के विकल्प की बदौलत, हमने Bertolt BRECHT (बेरतोल्ट ब्रेष्ट) की भूमिका निभाई। वह एक जर्मन रंगमंच लेखक हैं। हमने यह नाटक किया और इसी रंगमंच विकल्प की बदौलत मुझे नाटक के बारे में अच्छी तरह से समझ आने लगी। हालाँकि मैं कला, vernissage (वर्निसेज - कला  प्रदर्शन) आदि की पृष्ठभूमि से आई थी, मेरे लिए नाटक करना एक शिक्षा थी। यह एक अलग संस्कृति है। इस विकल्प की बदौलत मैं रंगमंच से बहुत परिचित होने लगी। मैं आपको यह सब इसलिए बता रही हूँ क्योंकि शायद यही कारण है की मैं रंगमंच महोत्सव की ओर आकर्षित हुई हूँ। हम एक रंगमंच महोत्सव आयोजित करते हैं। अब जब आप मुझसे पूछ रहे हैं, तो मेरे लिए इस उच्च विद्यालय के अनुभव के बारे में सोचना और यह समझना आसान है कि हम पिछले सात सालों से, Toujours (तोजूर) महोत्सव के साथ, रंगमंच पर इतना ध्यान क्यों दे रहे हैं और अपना इतना समय क्यों दे रहे हैं।

अनुबंध: शुक्रिया। अगर मैं सही समझा, तो आपने दो स्नातक पदवियां प्राप्त की हैं। एक २००९ से २०१३  के दौरान सियोंस पो में और दूसरी पोंथेओ सोरबोन विश्वविद्यालय में। और सियोंस पो में आपके विषय थे... क्या आप वहाँ किसी यात्रा समिति की अध्यक्ष भी थी ...? शायद यह संयुक्त राष्ट्र के लिए था और वहाँ पार्टी सोशलिस्ट का जोन  ज़े  विभाग था, जिसकी आप एक सक्रिय सदस्य भी थी। सोरबोन में, आपने इतिहास, कला, पुरातत्व और सिनेमा का अध्ययन किया। हाँ, तो कृपया हमें बताएँ कि मुझसे क्या कुछ छूट गया है। आपके लिए यह अनुभव कैसा रहा और आपके इस एक साथ दो स्नातक पदवियां  करने के निर्णय के बारे में?

शारजा: सियोंस पो में मेरा मुख्य ध्यान और मुख्य अध्ययन राजनीति विज्ञान पर था। हालाँकि, स्नातक के अपने पहले वर्ष के दौरान, बहुत सारे प्रशासनिक काम चल रहे थे। यह एक बहुत अच्छे महाविद्यालय में मेरा पहला वर्ष भी था। इसलिए, मैं कुछ कक्षाओं में असफल हो गई और इससे मैं बहुत निराश हुई। इसलिए, मैंने अपना समय बर्बाद करने का फैसला किया। कला के इतिहास में भी मेरी बहुत रुचि और आकर्षण था। वैसे अकेले राजनीति विज्ञान की अपनी पढाई ही  बहुत भारी पड़ती है।

इसे आज इस रूप में प्रस्तुत करना आसान है, लेकिन इस तरह की एक छोटी सी असफलता की बदौलत, मैंने सोरबोन में कला का इतिहास पढ़ना शुरू किया। यह पढाई चार साल तक चली यह पूरी तरह से समय का निपुण प्रबंधन  था। मैं कुछ कक्षाओं में जा सकती थी, कुछ परीक्षाएँ दे सकती थी, वगैरह। इस तरह, मैंने इसे सियोंसपो की तुलना में कहीं अधिक सहज तरीके से किया। मुझे याद है कि मैं इतिहास, ग्रीस के पुरातत्व, कला आदि जैसी कक्षाओं का आनंद ले सकती थी। यह राजनीति विज्ञान की तुलना में कहीं अधिक सहज था। इस तरह इसकी शुरुआत हुई। यह वास्तव में एक छोटी सी शैक्षणिक असफलता से उपजा था। इसी तरह मैंने दोनों स्नातक की पदवियां पूरी की। अंततः वे एक दूसरे के बहुत पूरक थी

राजनीति विज्ञान स्नातक बहुत ही नियामक उपक्रम है। इसमें राजनीति विज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र, समष्टि अर्थशास्त्र (macroeconomics) और सूक्ष्म अर्थशास्त्र (microeconomics) शामिल हैं। वैसे, मैं सूक्ष्म अर्थशास्त्र में बहुत कमज़ोर थी। यह अच्छा है क्योंकि कम से कम आपको यह तो पता चलता है कि आप किसी चीज़ में अच्छे हैं या नहीं। कला के इतिहास में, हमें एक ही प्रकार की कला पर ध्यान केंद्रित करना होता था। मैंने सिनेमा पर ध्यान केंद्रित किया और मुझे वह बहुत पसंद आया, क्योंकि इससे आप बहुत कुछ सीखते हैं।

इसके अलावा, मैं हमेशा से ही संगठनोंसे / संस्थाओंसे जुड़ी रही हूँ। सबसे पहले जब मैं सियोंसपो में थी तब वहाँ संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के लिए सियोंसपो नाम का एक विभाग था। इसमें कई विश्वविद्यालय शामिल हैं। भारत में भी ऐसा ही है। यह संयुक्त राष्ट्र का प्रतिरूप है। यह एक ऐसा संगठन है जो दुनिया भर में संयुक्त राष्ट्र के प्रतिरूप पर काम करता है। मैं उसकी उपाध्यक्ष थी और मैंने उस वक्त यात्रा समिति का कार्यभार संभाला। हम रूस, मोरक्को आदि गए। सबसे अच्छी बात यह है कि आप दुनिया भर के प्रज्ञ लोगोंसे, मेधावी छात्रों से मिलते हैं। और जिन सभी की अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में बहुत रुचि है और जो लोग सभी राष्ट्रीयताओं के लिए मन से खुले हैं। मुझे राजनीति विज्ञान विषय को अब शुरू किए १५-१७ साल हो गए हैं। उस समय मुझे उम्मीद थी कि राजनैतिक कूटनीति एक अच्छा साधन साबित होगी। मुझे संयुक्त राष्ट्र में वाकई बहुत दिलचस्पी थी और यह मेरे सोचने के तरीके के लिए बहुत महत्वपूर्ण था मुझे हमेशा से वामपंथी विचारों और राजनीतिक विचारों में बहुत रुचि रही है और सिनेमा में भी। मैं गोदार(GODARD) की एक फिल्म "ला शिनवाज" (La Chinoise) के बारे में सोच रही हूँ। उच्च माध्यमिक विद्यालय में मैं पहले से ही प्रदर्शन, आन्दोलन  वगैरह कर रही थी। उस समय मुझे पार्टी सोशलिस्ट(PS) में शामिल होने के लिए बुलाया गया था। और हाँ, अब सब कुछ बहुत अलग है क्योंकि फ्रांस में वामपंथ और वामपंथी ढाँचा काफ़ी बदल गया है। लेकिन उस समय मेरे जैसे छात्र के लिए पार्टी सोशलिस्ट में रुचि होना सामान्य बात थी। हालाँकि, बहुत से लोग राजनीतिक रूप से इतने सक्रिय नहीं थे। मुझे कहना होगा कि मैं आज के पार्टी सोशलिस्ट से कहीं ज़्यादा वामपंथी हूँ।

अनुबंधआपने गोदार (GODARD) का ज़िक्र किया। वे भारत में अपनी फ़िल्मों, "पिरो ल फ़ू" (Pierrot le Fou), "वीकेंड" (weekend) और कई अन्य फ़िल्मों के लिए काफ़ी मशहूर हैं। अब, सियोंसपो में आपके डॉक्टरेट के बारे में बात करते हैं। यह आपने पेरिस स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल अफेयर्स (Paris School of International Affairs) में किया था। आपने वहाँ अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा पहलुओं का विषय चुना था। वहां अफ़्रीकी मुद्दों पर भी बात की थी। क्या आप हमें सियोंसपो में अपने परास्नातक (masters) के अनुभव के बारे में बता सकते हैं?

शारजा: हाँ, बिल्कुल। मैं कहना चाहूँगी कि मैं साइंसपो को एक ऐसे विश्वविद्यालय के रूप में जानती हूँ जो विविध विकल्प प्रदान करता है। निजी तौर पर, मैं बहुत खुश थी क्योंकि मुझे हमेशा अच्छे पाठ्यक्रम और अच्छे शिक्षक मिले केनिया में अपने तीसरे वर्ष के बाद, मैंने एक प्रशिक्षण (internship) लिया मैं तब काम करना चाहती थी जब ज़्यादातर लोग दुसरे देशोंमे जाकर और पढ़ रहे थे। मैंने नैरोबी स्थित फ़्रांसीसी दूतावास में प्रशिक्षण लिया वहाँ मुझे आठ या नौ पूर्वी अफ़्रीकी देशों में दृश्य-श्रव्य (audio visual) सहायक के रूप में काम करने का मौका मिला। केनिया में रहते हुए, मैं इथियोपिया, युगांडा, तंजानिया और रवांडा जैसे अन्य देशों में काम करने या उनपर अनुसंधान करने में सक्षम थी। इसके दौरान अन्य राजनीतिक मुद्दों और क्षेत्रों पर मेरा ध्यान केंद्रित होने लगा। इसीलिए मैंने अफ्रीकी महाद्वीप को चुना।

उस समय, मुझे अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सभी पहलुओं में बहुत रुचि थी। मुझे याद है कि मैंने ऐसी कक्षाएं ली थीं जहाँ मुझे वास्तव में एक छोटा सा संस्मरण लिखना था। यह राफेल पर एक छोटे से शोधपत्र जैसा था। यहीं पर हम यह भी समझते हैं कि हमारे मूल्य, हमारी आचारनिति क्या हैं। असल में पैसा कहाँ है? जब मैं कहती हूँ कि पैसा कहाँ है, तो ऐसा लगता है जैसे बहोत सारा पैसा अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा में है!आप देखते हैं कि यह हथियारों की बिक्री या उसके ढाँचों से जुड़ा है। अगर आप इनकी वकालत करते हैं, तो आप हथियार बेचने वाली कंपनियों के लिए ऐसा कर रहे होंगे। यहीं पर आप यह समझने की कोशिश करते हैं कि दुनिया के बारे में मेरा क्या दृष्टिकोण है। क्या वास्तव में हथियार बेचना शांति बनाए रखने का एक तरीका है? इसे इस तरह कहने के लिए क्षमा करें, लेकिन मुझे यह सवाल शुरआत में काफी आकर्षक लगे। जैसे की राफेल आदि के बारे में बात करना और काम करना। धीरे-धीरे, मैंने भी इसके बारें में मेरी सोच को बदलते देखा और मैं वास्तव में इसमें विश्वास नहीं करती थी मैं वास्तव में यह नहीं मानती कि अगर आप एक ऐसा देश बनाते हैं जहाँ पूरी अर्थव्यवस्था राफेल जैसे हथियारों की बिक्री पर टिकी है, तो आप में शांति प्रक्रिया और शांति अध्ययन आदि में शामिल हो सकते हैं। इसलिए, इस अनुभव की बदौलत  मुझे यह भी पता चला कि मैं असल में क्या चाहती हूँ। खैर, अब सब हो जाने के बाद इस बारे में बात करना बहुत आसान है। क्योंकि अब आप अपने जीवन के सितारों को किसी तरह संरेखित करने की कोशिश करते हैं। मुझे यकीन नहीं है कि उस समय मेरे लिए यह बात इतनी स्पष्ट थी। लेकिन मेरा महाविद्यालय शिक्षकों, अन्य क्षेत्रों के बारें में और अन्य लोगों से सीखने के मामले में बहतरीन था

अनुबंध: एक बाँत युद्धों और हथियारों के बारे में, जिनका आपने ज़िक्र किया.... मैंने हाल ही में प्रसिद्ध भारतीय लेखिका अरुंधति रॉय की एक टिप्पणी पढ़ी। उन्होंने कहा, "पहले हम युद्ध के लिए हथियार बनाते या उत्पादित करते थे। अब, स्थिति उलटी है। हथियार बेचने के लिए हमें युद्धों की ज़रूरत है!"

शारजाबिल्कुल! बहुत-बहुत शुक्रिया। क्योंकि वो मुझसे कहीं बेहतर तरीके से अपनी बात कहती है। मैं भी यही कहना चाहती थी, हाँ। मेरा मतलब है, अगर आपके पास हज़ारों हथियार हैं, तो आपको उन्हें बेचना ही होगा। हमारे लिए भी यह समझना तर्कसंगत है। हम इसे हर जगह देख रहे हैं। मिसाल के तौर पर, पिछले १५ सालों से, सभी युद्ध लंबे सालों से चल रहे हैं... सालों से, और उसके पीछे कोई कोई वजह ज़रूर है।

अनुबंध: एक और कहावत याद रही है। मुझे नहीं पता कि वो किसने कही था, लेकिन उन्होंने कहा था, "आप दुनिया को बम से टुकड़े-टुकड़े तो कर सकते हैं, लेकिन किसी बम से दुनिया में शांति नहीं ला सकते।"

खैर, अब आगे बढ़ते हैं। अपने डॉक्टरेट के लिए अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के बाद EHESS में एक अलग विषय चुना, EHESS जिसका नाम है इकोल दे ओत एत्युद ओं सियोंस सोसिआल(École des Hautes Études En Sciences Sociales - EHESS) यह भारतीय और दक्षिण एशियाई पर केंद्रित अध्ययन केंद्र है। यहाँ आपने बांग्लादेश के राज्य, धर्म और समाज, धर्मनिरपेक्षता और इस्लामवाद के बीच के संबंधों का अध्ययन किया। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आपके शोध प्रबंध के निदेशक मिशेल बोइव्हया (Michel BOIVIN) थे। उन्होंने कई किताबें लिखी हैं। उदाहरण के लिए, उनकी पुस्तक "पाकिस्तान में सिंध की सूफी संस्कृति का ऐतिहासिक शब्दकोश"। हाल ही में मुझे सियोंसपो के लोरों गेये (Laurent GAYER) का साक्षात्कार करने का सौभाग्य मिला और उन्होंने मिशेल बोइव्हया का ज़िक्र किया था। तो, क्या आप हमें अपने डॉक्टरेट के इस अनुभव के बारे में बता सकते हैं?

शारजा: इस प्रश्न के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। इसकी बदौलत मैं आपको बता पाऊँगी कि मेरी पहचान ने मेरे पीएचडी शोधप्रबंध (thesis) को कैसे आकार दिया और इसमें मैंने क्या किया। अपने स्कूल के दिनों में, मुझे पूरा यकीन था कि मेरी बांग्लादेशी और बंगाली पहचान यहाँ पूरी तरह से समाहित है। मैंने खुद को सचमुच यकीन दिलाया कि अगर मैं अनुसंधान करूँ तो मुझे किसी और चीज़ पर काम करना होगा। शायद आज जब मैं यह कहती हूँ तो यह कहना थोड़ा बेतुका लगे, लेकिन उस समय, मुझे यकीन था कि मुझे एक और भाषा सीखनी होगी। इस तरह, स्वाहिली भाषा का सीखना हुआ। एक और अनुसंधान विषय पर काम करने की इच्छा थी। मैं इस बात पूरा विश्वास था कि मुझे बांग्लादेश पर काम करने की कोई ज़रूरत नहीं है। मेरे मन में सचमुच यही विचार था। इसलिए, मैं कट्टरपंथ की प्रक्रिया पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित कर रही थी, शायद केनिया वगैरह में। हालाँकि, २०१५ में स्नातक होने के बाद बहुत कुछ हुआ। मैंने एक सिरफिरी महिला के साथ एक नई नौकरी शुरू की। एक बहुत ही मुश्किल बर्ताववाली इंसान थी और इस अनुभव के कारण, छह महीने बाद, मैं एक तरह की बेदिली (burn out) से गुज़री। स्नातक होने के बाद, मुझे हमेशा से पता था कि मैं अनुसंधान करना चाहती हूँ, लेकिन मेरे पास नौकरी का एक अवसर था। मैं तब जवान थी, शायद २३ साल की। इसलिए मैंने इस नौकरी के लिए हाँ कर दी। इस सिरफिरी औरत का साथ ही मेरी पहली बेदिली की एक वजह बनी।

और मुझे यह भी याद है कि जुलाई २०१६ में, ढाका के होले आर्टि बेकरी (Holey Artisan Bakery) में पहला हमला हुआ। यह राजनयिक क्षेत्र में था और इस्लामिक स्टेट द्वारा विदेशियों और बांग्लादेशियों के खिलाफ़ आयोजित किया गया था। इसलिए, इन दो बातों ने मुझे इस भावना और विचार की ओर वापस खींचा कि मैं इस पर अनुसंधान करना चाहती हूँ। मेरे मन में यह बात थी। हर बार जब आपको लगता है कि आप किसी खाई में गिर रही हों, तो वास्तव में आपको बचाने ब्रम्हांड से मदद आज जाती है। यहीं से अनुसंधान करने का विचार आया। मुझे पता था कि मैं EHESS, École des Hautes Études En Sciences Sociales में अनुसंधान करना चाहती हूँ। यह ऐतिहासिक रूप से वह विश्वविद्यालय है जहाँ मानवविज्ञानी (anthropologist) क्लोद लेव्ही-स्त्रोस (Claude LÉVI-STRAUSS) थे। मानव विज्ञान के ये बड़े नाम है इसलिए, मैंने सियोंसपो में राजनीति विज्ञान किया, जो मेरे लिए एक बेहतरीन महाविद्यालय था और मुझे यह बहुत पसंद आया। मैं सचमुच में एक अधिक मानवशास्त्रीय, समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाना चाहती थी और École des Hautes Études En Sciences Sociales में पढ़ना चाहती थी।

मुझे पता था कि इसकी बहुत अच्छी प्रतिष्ठा है। इसलिए, मेरे दो उद्देश्य थे: बांग्लादेश पर अनुसंधान और EHESS में पढ़ाई। मैं कहूँगी कि १ जुलाई के हमले से मेरे विचारों में तेज़ी गई। मुझे याद है, मैं ख्रिस्तोफ जाफ्र्लो(Christophe JAFFRELOT)से बात करने गई थी, क्योंकि मैं उन्हें सियोंसपो से जानती थी। उनके साथ मेरी एक बहुत अच्छी कक्षा हुई थी। मुझे याद है कि मैं पश्चिम बंगाल (भारत) और बांग्लादेश की सीमाओं पर जो कुछ हो रहा था, उसके बारे में कुछ करने के बारे में सोच रही थी, शायद कट्टरपंथ पर। क्योंकि यह भी एक ऐसा दौर था जब यह सब हो रहा था। मेरे दिमाग में अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा वगैरह चल रही थी। मुझे लगता है, उस समय, फ्रांस में दुनिया के लिए बांग्लादेश उतना दिलचस्प नहीं था।

मैं यहाँ किसी को धन्यवाद देना चाहती हूँ। ये व्यक्ति जों-ल्यूक रासीन (Jean-Luc RACINE) हैं, जो अब निवृत्त अध्यापक हैं। वे पहले EHESS में शिक्षक थे। मैं उनके पास तब गई थी जब वे सेवानिवृत्त हो रहे थे, इसलिए वे मुझे छात्र के रूप में नहीं ले सकते थे। दरअसल, मैं उनके पास गई, उन्हें अपना परिचय दिया, मैं क्या करती हूँ वगैरह बताया और उन्होंने ही मुझसे कहा, "हमें बांग्लादेश पर किसी की ज़रूरत है!" क्योंकि फ़्रांस में बांग्लादेश पर कोई नहीं था, या वास्तव में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसने पीएचडी की हो या इस स्तर की वैज्ञानिक पढ़ाई की हो। मुझे किसी ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत थी, जो मुझे प्रशिक्षित ना करे, बल्कि मेरा पीएचडी पर्यवेक्षक बने। इसलिए, उनकी बदौलत मेरी मुलाक़ात मिशेल बोइविन (Michel BOIVIN) से हुई। मैं बहुत खुश हूँ, मिशेल की शुक्रगुज़ार हूँ क्योंकि उन्होंने मुझे स्वीकार कर लिया। वे सिंध के विशेषज्ञ हैं और एक इतिहासकार और इस्लाम विशेषज्ञ हैं। वैसे हमारा नज़रिया एक जैसा नहीं है, लेकिन उनके इतिहासकार और इस्लाम विशेषज्ञ होने से मुझे बहुत मदद मिली। हर बार किसी शब्द, संज्ञा पर सवाल उठाने का उनका तरीका अनोखा होता था। मैंने उनसे बहोत कुछ सीखा। उदाहरण के लिए, वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कहा था, "बांग्लादेश, जो ९१% मुस्लिम बहुल देश है, उसका धर्मनिरपेक्षता को संबोधित करने के लिए "धर्मो निरपेक्ष" शब्द को संविधान में वास्तव में रखना बहुत दिलचस्प है। यह शब्द संस्कृत से लिया गया है। जबकि अधिकांश अन्य मुस्लिम देशों के लिए, हालाकिं सभी के लिए नहीं, यह शब्द लैटिन पर आधारित है। या फिर उनके  पास अरबी शब्दावली है। इस तरह की सोच और शुरुआत मिशेल से आई। इस तरह मैं EHESS में आई।

अनुबंधमेरे खयाल में, सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक पहचानों के बीच संबंध बहुत मज़बूत हैं और इन्हीं ने भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के इस क्षेत्र को परिभाषित किया है।

अब मुझे आपके अनुभवों का संक्षिप्त विवरण देना है क्योंकि वे बहुत सारे हैं। ऐसा करना मेरे लिए वाकई एक चुनौती है। आइए इन्हें दो भागों में बाँटें, एक जो आपकी शिक्षा और अनुसंधान से संबंधित है और दूसरा जो कला या रंगमंच और सिनेमा से संबंधित है, वह भी महत्वपूर्ण हैं।

मैंने देखा कि आपने बांग्लादेश में ग्रामीण बैंक के लिए भी दो महीने काम किया है। हालाँकि यह एक छोटा सा अनुभव है, मैं इसे यहाँ उजागर करना चाहूँगा क्योंकि यह काफी हटकर है। एक तरह से, यह हमें आपके अनुभवों की विविधता और दायरे के साथ-साथ आपके मिलनसार स्वभाव का भी अंदाज़ा देता है। आप एक महीने तक बांग्लादेश में महिला एवं बाल मामलों के राज्य मंत्रालय में संसद सहायक भी रहीं। हमने केनिया के बारे में पहले ही बात की है  जहाँ आपने फ्रांसीसी विदेश मामलों और अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग के लिए काम किया। आप "ऐन्स्तित्यु मोंतेन" (Institut Montaigne) में एक अनुसंधान सहायक भी रहीं, जो अपने अनुसंधान और विश्लेषण के लिए फ़्रांस में काफी प्रसिद्ध है। कुछ महीनों के लिए, आपने "राष्ट्रीय शरणार्थी अधिकार न्यायाधिकरण" (National Refugee Rights tribunal)में एक दुभाषिया के रूप में भी काम किया। आठ वर्षों के दौरान, आप "टीच फ़ॉर फ़्रांस" (Teach for France) में एक परियोजना प्रबंधक रहीं। आप "खोलज" (Kholeuse) में इतिहास की शिक्षिका रहीं, जहाँ आपने इतिहास और भूगोल दोनों पढ़ाए। अंत में, आपने "इमुना" (Emouna), सियोंसपो पेरिस में एक पाठ्यक्रम निदेशक के रूप में पढ़ाया। आप फरवरी २०२४ से सियोंसपो, लआव्र (Le Havre) में एक “अस्थायी शिक्षक” (temporary teacher) भी हैं। इसके अलावा, आप ल आव्र में एक "ओनसैन्योंत वाकातेर" (enseignante vacataire) भी थी। शायद आप हमें इन दोनों के बीच का अंतर बता सकें।

शारजा: खैर, हम हर साल या हर गर्मियों में बांग्लादेश जाते थे। बचपन से ही मुझे राजनीति और दुनियादारी में दिलचस्पी रही है। मैं हमेशा से ही कई प्रशिक्षण करती रही हूँ। कुछ प्रशिक्षण बहुत छोटे दौर के होते थे, जैसे ग्रामीण बैंक वाला मुझे नहीं लगता कि वो दो महीने का भी रहा होगा हालाँकि, वो मेरे फ़्रांसीसी दोस्तों के साथ था मुझे याद है, मैं यहाँ से अपने तीन दोस्तों के साथ गई थी। असल में वो पहला अनुभव था जब हम गाँवों में थे, बिना माता-पिता के, बिना परिवार के, सिर्फ़ हम दोस्तों के साथ।

एक बात जो आपने नहीं बताई, वैसे वो वाकई में ठीक है। लेकिन, उसी अनुभव से मैंने बहुत कुछ सीखा है। ये हमारा पहला प्रशिक्षण था। ये एक बेहतरीन स्वयं सेवी संस्था "एपीएसआईएस सर्व्ह्यावर फाउंडेशन" (APSIS Survivors Foundation ) के साथ था ये एक ऐसी संस्था है जो लैंगिक मुद्दों, पितृसत्तात्मक कारणों और स्त्री-द्वेषी लोगों द्वारा तेजाब के हमले का शिकार हुई महिलाओं की मदद करता है। आमतौर पर, जब कोई महिला किसी पुरुष से शादी नहीं करना चाहती, तो उसके परिवार वाले आते हैं, उससे बदला लेते हैं और उस पर तेजाब फेंक देते हैं। मैं इन सब से वाकिफ नहीं थी। मैं उनके डर और आशंकाओं को समझने लगी। बांग्लादेशी समाज की बुराइयों को। मुझे उनका सामना करने में खुशी होती थी।

फिर, हमारे पास ग्रामीण बैंक था। शिरीन अख्तर के साथ ये प्रयोग थे। बाद में वे (बांग्लादेशी) संसद, महिला एवं बाल मामलों के मंत्रालय की अध्यक्ष बनीं। यह वास्तव में मेरे माता-पिता और उस समय अवामी लीग से उनके जुड़ाव की बदौलत था। कम से कम मुझे (बांग्लादेश के) संसद के कामकाज को थोड़ा-बहुत समझने में खुशी हुई। ये सारे अनुभव मुझे थोडा स्थिर होने के लिए बहुत अच्छे थे। मुझे वास्तव में बांग्लादेश में अपनी पहचान बनाने की ज़रूरत थी। मेरा मतलब है, बांग्लादेश में भी बहुत से लोग यह कहना पसंद करते हैं, "ओह... तुम कहाँ गई थी? तुमने यह कपड़ा कहाँ से खरीदा? ढाका में मैं तो इस जगह को नहीं जानती" और मैं, बांग्लादेश की जगहों को जानना चाहती थी। मैं उन पर अपनी स्वायत्तता स्थापित करना चाहती थी। मानो, जैसे मैं यहाँ गई थी  और मैं वहाँ भी गई थी! इसलिए, मेरे मन में शुरू से ही यह विचार था। हालाँकि, मेरे माता-पिता थोड़े डरे हुए थे, जैसा कि कुछ माता-पिता हो सकते हैं क्योंकि आप अपने देश से दूर होते हैं। इसलिए, सुरक्षा के लिहाज से, आप उस देश से अपने लिए सबसे बुरे अनुभव की उम्मीद करते हैं। बांग्लादेश को स्वयं से जानने का मेरा एकमात्र तरीका यह प्रशिक्षण करना था।

तीसरा संगठन जिसने मेरी सबसे ज़्यादा मदद की, वह था "निजेरिया कोरी" (Nigera Kori), यानी हम स्वयं ही काम करते हैं। इसके बाद, अपना जमीनी काम (fieldwork) करने के लिए, मैंने इस संगठन के साथ काम किया। यह एक ज़मीनी स्तर का स्थानीय संगठन है जो महिलाओं और पुरुषों के बीच समूह बनाता है। वे सांस्कृतिक, शिक्षाप्रद और सूचनात्मक सत्रों के ज़रिए "भूमिहीन" लोगों को आत्मरक्षा के लिए संगठित होने में मदद करते हैं। यह सब बांग्लादेश के अनुभवों के लिए था। मुझे प्रेरित करने वाली एक बात यह थी कि अपने अनुभवों के ज़रिए खुद को वैध और स्वतंत्र बनाना था।

सियोंसपो को पूरे फ्रांस में अपने कैंपस बनाने में दस साल से ज़्यादा का समय हो गया है। ऐसा उनके छात्रों की बड़ी संख्या को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। यह सिर्फ़ पेरिस में ही नहीं, बल्कि विशेषज्ञता के क्षेत्र के अनुसार कैंपस बनाए जा रहे हैं। एशियाई विशेषज्ञता का क्षेत्र ल आव्र में है।

मैं आपको यहाँ अस्थायी शिक्षक वाली बात बताऊँगी। यह सिर्फ़ अंग्रेज़ी शब्द है, जो सटीक नहीं है। इसे "वाकातेर" कहते हैं। मूलतः फ़्रांस में, एक व्यवस्था है जहाँ या तो आप अध्यापक होते हैं, जहाँ आपको कई परीक्षाएँ पास करनी होती हैं, कई साल काम करना होता है, वगैरह। शायद मैं बाद में इसके लिए प्रयास करूँगी। इसके अलावा, अगर आप "सिर्फ़ एक शिक्षक" हैं, और आपके पास यह दर्जा नहीं है, तो आपको "अस्थायी वाकातेर" (temporary teacher) कहा जाता है। आज शिक्षकों द्वारा, हमारे लोगों द्वारा इसकी बहुत आलोचना की जाती है। क्योंकि विश्वविद्यालय जो कर रहे हैं, वह ऐसा है जैसे वे बहुत ज़्यादा "वाकातेर" शिक्षकों को नियुक्त कर रहे हैं, जिन्हें वे कम वेतन देते हैं, हालाँकि उनकी योग्यता अच्छी है। हम सभी उच्च योग्यता प्राप्त हैं, फिर भी वे हमें कम वेतन देते हैं। इसलिए, वे इन सभी अद्यापकों को नियुक्त नहीं करते। इस तरह, आपके पास कम रिक्त पद होंगे। हालाँकि यह अच्छी स्थिति नहीं है।

मैं सियोंसपो में पढ़ा रही हूँ, सबसे पहले उस कक्षा में जिसे "एस्पास मोंदियाल" कहा जाता है यह वहाँ की एक बहुत प्रसिद्ध कक्षा है। यहाँ हमारा मुख्य व्याख्यान होता था और फिर मैं छोटे-छोटे व्याख्यान देती थी। यहीं से मैंने फ्रेंच में और फिर अंग्रेजी में पढ़ाना शुरू किया। यह पहला साल था। मैंने अंग्रेजी में बहुत कुछ सिखा-लिखा है, लेकिन अंग्रेजी में पढ़ाना एक जैसा नहीं होता, है ना? २०१८ में यह मेरा पहला मौका था जब मैंने ये तीन कक्षाएं लीं। यह एक शानदार अनुभव था। इसकी बदौलत, आपको लगता है कि आप और भी बहुत कुछ कर और सिखा सकते हैं। मैंने उस कक्षा की अवधारणा बनाई और उसका प्रस्ताव रखा जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। इसका शीर्षक था, "भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में राज्य, धर्म, समाज और हिंसा" यह एक छोटा सा व्याख्यान था।

अनुबंध: सचमुच, शिक्षा का जुनून सिर्फ़ आपके अनुसंधान कार्य के गंभीर मुद्दों और विषयों तक ही सीमित नहीं है। आपने INALCO (Institut National des Langues Orientales, इंस्टीट्यू नास्योंनाल  दे लोंग ओरिओंताल) में बंगाल का इतिहास और बंगाली कविता भी पढ़ाई। आपने अपने द्वारा आयोजित नाट्य महोत्सव, 'तोजुर महोत्सव' का ज़िक्र किया। आपने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सिखा है। आपने भरतनाट्यम भी सीखा है जिसे आप पढ़ाती हों क्या अब आप हमें अपने इन गैर-शैक्षणिक अनुभवों और जुनून के बारे में संक्षेप में बता सकते हैं?

शारजा: बिल्कुल, शुक्रिया। बंगाल के इतिहास के बारे में स्पष्ट करने के लिए। यह वास्तव में बहुत ही शैक्षणिक है क्योंकि यह INALCO में है। मुझे एक कक्षा में बंगाल का इतिहास पढ़ाने का मौका मिला। वैसे मैं इतिहासकार नहीं हूँ, फिर भी मैं इस पर पढ़ा सकती हूँ। दूसरी कक्षा बंगाली में पढ़ने के बारे में है। मुझे इसमें बहुत मज़ा आया क्योंकि यहाँ आप वही समझते हैं जो आप अपनी माँ से सीखते आए हैं। मैं व्याकरण या भाषा की शिक्षिका बिल्कुल नहीं हूँ। हालाँकि, मेरे कुछ छात्र ऐसे पाठ पढ़ रहे थे जिन्हें हम सामूहिक रूप से चुनते थे। मुझे ऐसा करने में बहुत खुशी हुई।

अधिक कलात्मक चीज़ों के लिए दो अनुभव हैं। पहला जिसके बारे में मैं बात करूँगी, वह है भरतनाट्यम। मैं बचपन से भरतनाट्यम कर रही हूँ और मुझे यह बहुत पसंद है। मुझे हमेशा से नृत्य करना बहुत पसंद था। सियोंसपो एक ऐसा महाविद्यालय है जहाँ आपके बहुत सारे संघ और संगठन होते हैं। कभी-कभी ये कक्षाओं से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। मेरे पास एक छात्र था जिसकी मैंने वास्तव में सराहना की। उसने मुझे बताया कि वह भरतनाट्यम सिख रखा रहा है। यह तब था जब मैंने खुद से कहा, "ये लोग कितने खुले विचारों वाले हैं!" दूसरे वर्ष में एक चीज़ होती है जिसे "आतलिये अर्तिस्तिक" (Atelier Artistic) कहा जाता है, जो एक कलात्मक कार्यशाला है। यह संगीत, नृत्य, कला या और कुछ भी हो सकता है। मैं ल आव्र में छह साल से पढ़ा रही हूँ। इसलिए मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं भरतनाट्यम के साथ कुछ कर सकती हूँ?

अब आखिरी बात जो थोड़ी अलग है। वो है तोजुर महोत्सव मेरे दो सबसे अच्छे दोस्त हैं जिन्होंने इस महोत्सव की स्थापना की। उनमें से एक हास्य कलाकार हैं और एक "मेतर ओं सेन" (metteur en scène)। उन्हीं की वजह से मैं इस महोत्सव की ओर आकर्षित हुई। यह महोत्सव एक बहुत ही खूबसूरत जगह पर होता है, "शातो द मोंथो-सें-बेर्नाद" (Château de Menthon-Saint-Bernard) नामक महल में। उस समय, उन्हें स्वयंसेवकों के रूप में अपने दोस्तों की मदद की ज़रूरत थी। मैं स्वयंसेवा करने गई और मैंने वहा एक दिन बिताया। वैसे मुझे अगले दिन वापस जाना था और आखिरकार मैंने वहा पूरा हफ़्ता बिताया। फिर मैं इस संगठन में शामिल हो गई। यह एक ऐसी चीज़ है जिसने हमारी राजनीतिक लड़ाइयों को भी साथ दिया और उसे संरचित किया। उदाहरण के लिए, पिछले कुछ सालों में फ्रांस में उन्होंने (सरकारने ) इस (कला-संस्कृति) पर वित्त सहायता में बहुत कटौती की है, इसलिए ऐसा करना भी हमारे लिए एक प्रकार का प्रतिरोध है।

अनुबंध: बिलकुल। वित्त सहायता में मितव्ययिता (austerity) हमारे समय की एक चुनौती है। वैसे, आपके अनुभवों की विविधता में एक और उपलब्धि यह है कि आपने "शारजा" परिधान ब्रांड की भी स्थापना की है। आपकी अनुमति से, मुझे इंटरनेट पर मिली कुछ तस्वीरें दिखाना चाहता हूँ। क्या आप हमें इस अनुभव के बारे में कुछ बता सकते हैं?



शारजा: हाँ, "शारजा", इस ब्रांड का नाम मेरे नाम से है। भारत और बांग्लादेश में हमारे दर्जी होते हैं, है ना? फ्रांस में तो ये बिलकुल नहीं है। या जब मिलते भी हैं, तो बहुत महँगे होते हैं। मैं अपनी मौसी के साथ ढाका के गोसिया (Gausia) बाजार में कपड़े खरीदने जाती थी और दर्जियों को बनावट (design) देती थी। जब मैं और मेरी बहन उच्च माध्यमिक विद्यालय में थे, तो गर्मियों की छुट्टियों के बाद हम हमेशा ढेर सारे रंग-बिरंगे कपड़े लेकर आते थे। इसलिए, मेरी कई सहेलियाँ कहती थीं, "मुझे तुम्हारे कपड़े बहुत पसंद है!" इसलिए, उच्च माध्यमिक विद्यालय के बाद से ही मेरे मन में कहीं कहीं ये विचार हमेशा रहता था। मैं कहती थी, "एक दिन मैं अपना एक छोटा सा कपड़ों का दुकान निकलूंगी" इसलिए, बाद में ये विचार मेरे मन में आया। मैंने सोचा, शायद यही वो पल है जब मैं बांग्लादेश वापस जाकर ऐसा कर सकती हूँ। इसलिए, दिसंबर २०१६ में मैं अपने पिता के साथ बांग्लादेश वापस गई। मैंने तय किया कि मैं ५० छोटे-छोटे पोशाक बनाऊँगी। इस तरह इसकी शुरुआत हुई और फिर ये "स्लो फ़ैशन" बन गया। ये लगभग २०० परिधानों के आसपास होता है। मैंने पेरिस में साल में एक या दो बार एक छोटा सा नुमाइश का घर (showroom) खोलना शुरू किया।

 



अनुबंध: आपको पेरिस के परिदृश्य में रंग और जिंदादिली जोड़ने के लिए धन्यवाद!

अब मेरे पास शायद आपके लिए एक मुश्किल सवाल है। उम्मीद है आप बुरा नहीं मानोगी आपकी कारकिर्दगी और सफ़र पर नज़र डालने पर, हमें कुछ बहुत ही प्रमुख संस्थानों के नाम नज़र आते हैं; सियोंसपो, ईएचईएसएस (EHESS), सोरबोन, ऐन्स्तित्यु मोंतेन जैसे अनुसंधान संस्थान और शैक्षणिक संस्थान। फिर फ्रांस का विदेश मंत्रालय और बांग्लादेश का मंत्रालय भी। फ्रांसीसी दर्शकों के लिए भी ये वाकई में बड़े नाम हैं। जो आपकी प्रतिभा, आपके जुनून और आपकी कड़ी मेहनत का सबूत हैं। हालाँकि, ये ऐसे नाम भी हैं जिन्हें किसी ख़ास मुकाम की निशानी माना जाता है। हर कोई वहाँ जाकर अपनी ख्वाहिशें पूरी नहीं कर सकता। इस आकलन पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

शारजा: खैर, विशेषाधिकार (priviledge), मैं इस बात से इनकार नहीं कर सकती कि मुझे ऐसे माता-पिता का सौभाग्य मिला, जिनकी पृष्ठभूमि ऐसी थी जहाँ उनके लिए शिक्षा, संस्कृति, भाषाएँ महत्वपूर्ण थीं। यह एक ऐसी चीज़ है जिसे मैं नकार नहीं सकती। यह एक तरह का १००% विशेषाधिकार है। हालाँकि, आपको इस विशेषाधिकार को धारण करते रहना होता है, उसे आगे बढ़ाना होता है मेरे माता-पिता अप्रवासी थे, वो यहाँ बाहर से आये थे। उन्होंने बांग्लादेश में अपना सब कुछ छोड़ दिया। वे आए, उन्होंने यहाँ अपना जीवन बसाया यह सच है कि मेरी बहन और मेरी पीढ़ी, हम विशेषाधिकार प्राप्त लोग हैं। हालाँकि, जैसा कि मैं आपको बता रही थी, जब मैं बच्ची थी तो हम हर समय काम करते थे। मैं दुसरे बच्चोंसे अतिरिक्त काम करती थी। बेशक, हमें संरचनाओं के संदर्भ में विशेषाधिकार मिला, दुनिया के लिए इसका जो अर्थ है इस संदर्भ में। हालाँकि, फिर यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप अपने विशेषाधिकारों का उपयोग कैसे करते हैं और आप किसके लिए काम कर रहे हैं। इस विशेषाधिकार ने मुझे बाकी लोगों के प्रति सबसे अधिक न्यायपूर्ण और समान होने की कोशिश करने में मदद की। अपने लेखन के साथ मैं किसी भी चीज़ के प्रति वैचारिक, मूर्खतापूर्ण वफ़ादार होने की कोशिश करती हूँ।

अनुबंधहाँ। वास्तव में, एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि आप की कारकीर्द और अब तक के आपके सफ़र को देखते हुए, हम यक़ीनन कह सकते की आपने अपनी रुचियों का लालन-पालन किया है। आपने उन जुनूनों को पूरा करने में खुद की सहायता की है। शायद यही वजह है कि हम देखते हैं कि आप की कारकीर्द इतनी खूबसूरती से खिल रही है।

अब हम एक आखिरी बात पर आते हैं और इसी के साथ हम इस वार्तालाप को समाप्त करेंगे यह पहचान (identity) के मुद्दे के बारे में है जिसे आपने शुरुआत में उठाया था। अर्थशास्त्र के लिए प्रसिद्ध भारतीय नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन की एक किताब है। अपनी पुस्तक, "पहचान और हिंसा" में, वे कहते हैं कि कभी-कभी इस बात पर आपका बहुत कम नियंत्रण होता है कि दूसरे आपकी पहचान को कैसे देखते हैं। उनका दावा है कि पहचान कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे आप खोजते हैं, बल्कि वह यह है जिसे आप ख़ुद गढ़ते हैं। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

शारजा: उन्हें उद्धृत करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं इस पुस्तक को नहीं जानती, लेकिन मैं कहूँगी कि अमर्त्य सेन, मेरे लिए, जिस तरह से मैं बंगाली पहचान, साहित्य, संस्कृति को महसूस करती हूँ, मैं उससे १००% सहमत हूँ। सत्यजीत रे के साथ, अमर्त्य सेन के साथ। मेरा मतलब है, जब मैं सहमत कहती हूँ, तो इसका मतलब सोचने का एक तरीका, पहचान, कला, संस्कृति, आदि का मिश्रण, इससे है दरअसल, जब आपके पास मिश्रित संस्कृति नहीं होती, तब भी लिंग, वर्ग, विचार, राजनीति, माँ, पिताजी, मेरे भाई, मेरी शिक्षा, भाजपा, कांग्रेस, इत्यादि... के बीच ये पहचान के टकराव होते रहते हैं... आप समझ रहे हैं, मेरा क्या मतलब है? आपके भीतर पहले से ही ये पहचान के टकराव हैं। जितना अधिक आप विकसित होते हैं, उतना ही आप समझते हैं कि वास्तव में आपकी पहचान क्या है। आपकी पहचान निरंतर विकास में है। यह कोई स्थिर चीज़ नहीं है। यही जीवन को इतना बेहतर और महान बनाता है। अगर यह एक स्थिर चीज़ होती, तो हम कभी भी दूसरों से बातचीत नहीं कर पातें और उनसे सीख नहीं पाते, है ना? हाँ, यह कुछ गतिशील है और यह कुछ विकसित भी हो रहा है। मैं तो यही कहूँगी कि यह ऐसी चीज है जो जीवन को और अधिक महान और जीने लायक बनाती है।

अनुबंध: शुक्रिया शारजा! यह एक दिलचस्प बातचीत थी। मुझे उम्मीद है कि अब दर्शकों को इस बात का अंदाज़ा हो गया होगा कि आपने जीवन में क्या हासिल किया है और आप उसे कैसे सवांर रही हो। हम इस चर्चा को अगले सत्र में जारी रखेंगे।

शारजा: आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!



शारजा शहाबुद्दीन

शारजा शहाबुद्दीन ने पेरिस स्थित इकोल दे ओत एत्युद ओं सियोंस सोसिआल(École des Hautes Études En Sciences Sociales - EHESS) से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। वह पेरिस स्थित सियोंस पो (SciencePo) और इनाल्को (INALCO) में भी पढ़ाती हैं। उनका अनुसंधान बांग्लादेश में इस्लामी मानदंडों के निर्माण पर केंद्रित है। वह कई भाषाओं में पारंगत हैं और कला में गहरी रुचि रखती हैं। शारजा ने भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा है और वह भारतीय शास्त्रीय नृत्य, भरतनाट्यम, सिखाती हैं। उनका एक परिधान ब्रांड भी है जिसका नाम "शारजा" है।

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शारजा शहाबुद्दीन: कला और राजनीति विज्ञान के माध्यम से एक अंतरसांस्कृतिक यात्रा

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