प्रस्तुत है आपके लिए मशहूर फ्रांसीसी अर्थशास्त्री और भारत विशेषज्ञ जॉन-जोसेफ ब्वालो (Jean-Joseph BOILLOT) के साथ एक रोचक बातचीत। श्री. ब्वालो स्वयं को एक विधर्मी अर्थशास्त्री मानते हैं, जो मानते हैं कि अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं के साथ-साथ कई अन्य पहलुओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। उन्होंने भारत, पाकिस्तान, चीन, फ्रांस, इटली, रूस, अफ्रीका, यूरोपीय संघ और कई अन्य विषयों पर किताबें लिखी हैं। भारत के साथ उनका जुड़ाव ४५ वर्षों से भी अधिक पुराना है।
इस दिलचस्प साक्षात्कार में, हम फ्रांसीसी, भारतीय और यूरो क्षेत्र की जटिलताओं की तुलना करते हैं। हम इस बात की जाँच करते हैं कि राष्ट्रीय ऋण किस प्रकार जीडीपी वृद्धि दर, मुद्रास्फीति दर, कर राजस्व, ऋण पर ब्याज के दरों, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की नियामक भूमिका, किसी देश की अपनी मुद्रा के मूल्यन / अवमूल्यन की क्षमता और कई अन्य कारकों पर निर्भर करता है।
श्री. ब्वालो हमें विशाल फ्रांसीसी राष्ट्रीय ऋण के पीछे के संरचनात्मक कारणों को बताते हैं तथा बताते हैं कि किस प्रकार आर्थिक संकट ने इस देश में सामाजिक अशांति को जन्म दिया है।
हम भारत और फ्रांस में बेरोजगारी के बीच अंतर पर भी चर्चा करते हैं, साथ ही यह भी पता लगाते हैं कि इन दोनों देशों के साथ-साथ यूरो क्षेत्र में शिशु मृत्यु दर किस प्रकार भिन्न है।
अंत में, श्री. ब्वालो ने यूक्रेन में संघर्ष के बारे में अपने आकलन को आलोचनात्मक और स्पष्ट रूप से हमारे सामने प्रस्तुत किया है, जिसमें उन्होंने भारत की आधिकारिक स्थिति और पश्चिमी खेमे (यूरोपीय संघ, अमेरिका और नाटो) के बीच टकराव पर भी ध्यान दिया है।
टिप्पणियाँ:
१) कृपया नीचे दिए गए लिंक पर इस मूल साक्षात्कार को देखें।
https://www.youtube.com/watch?v=0c3EIuAy47U
२) कृपया ध्यान दें कि साक्षात्कार में अंग्रेजी और हिंदी उपशीर्षक एक साथ हैं।
अनुबंध: नमस्ते! मेरा नाम अनुबंध काटे है। मैं Les Forums France Inde का सह-संस्थापक हूं और मैं पेरिस में अभियंता के रूप में काम करता हूं। आज मुझे Les Forums France Inde के मंच पर महान अर्थशास्त्री जॉन-जोसेफ ब्वालो (Jean-Joseph BOILLOT) का स्वागत करते हुए बहुत खुशी हो रही है! अगर मैंने आपके नाम का सही उच्चारण किया है तो...
जॉन-जोसेफ: यह एकदम सही है!
अनुबंध: शुक्रिया। तो आपका संक्षेप में परिचय देते हुए, आप एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं और आपने न केवल भारत के बारे में लिखा है बल्कि पाकिस्तान पर भी, अफ्रीका पर, चीन पर, फ्रांस पर, निश्चित रूप से यूरोपीय संघ पर। तो हम देखते हैं कि आपके अध्ययन का दायरा काफी बड़ा है।
आपने École Normale Supérieure (ENS - इकोल नोरमाल सुपेरियर) में अध्ययन किया है। वर्तमान में आप institut de Relations Internationales et Stratégiques (IRIS - इंस्टिट्यू दी रेलास्या अंतरन्यास्योनाल और स्ट्रातेजिक) में काम करते हैं, जो की अंतर्राष्ट्रीय एवं सामरिक संबंध का संस्थान है। आप २०१८ से विकसनशील देशों के लिए वहा सलाहकार हैं। आप इसके अलावा २००६ से Euro India Economic and Business Group - EIEBG (यूरो इंडिया इकोनॉमिक एंड बिजनेस ग्रुप) के सह-अध्यक्ष है। २००६ से आप भारत और एशिया के विशेषज्ञ हैं। आप Cercle CYCLOPE (सरक्ल साइक्लोप) का हिस्सा हैं। यह वैश्विक कमोडिटी बाजार की एक बाज़ार निर्देशिका है। इससे पहले, २००६-२००८ के बीच आप CEPII क्लब के आर्थिक सलाहकार थे। और १९९० और २००५ के बिच आप वित्त मंत्रालय में विकसनशील देशों पर आर्थिक सलाहकार थे।
जब हम आपके प्रकाशनों के बारे में बात करते हैं और मैं सक्षेप में आपकी प्रकाशित किताबों की एक झलक पेश करूँगा। तो भारत पर काफी कुछ किताबें हैं। जिसमे सबसे नयी किताब “अर्थशास्त्र” है। हम कह सकते हैं अर्थशास्त्र, जो की अर्थव्यवस्था का विज्ञान है। यह शब्द संस्कृत में है। फिर, “Utopies made in monde: le sage et l'économiste”, अफ्रीका के बारे में और भारत के बारे में एक किताब है। “Jugaad l'innovation”. आपकी किताबें अंग्रेजी और फ्रेंच में हैं, “भारत की अर्थव्यवस्था” पर। इससे पहले, “विस्तारित यूरोपीय संघ: सभी के लिए एक आर्थिक चुनौती”, यह भी एक किताब है। जब इटली के लिए (यूरोपियन यूनियन का) विस्तार किया गया था तब उसपर भी आपने एक किताब प्रकाशित की। रूस पर भी एक किताब है। शुरवात में पाकिस्तान पर एक किताब है। तो जॉन-जोसेफ ब्वालो, आपका स्वागत है!
जॉन-जोसेफ: धन्यवाद।
अनुबंध: और मेरा आपसे पहला प्रश्न यह है की क्या आप हमें संक्षेप में भारत के साथ आपके रिश्ते के बारे में बता सकते हैं? पाकिस्तान और एशिया के साथ आपके क्या संबंध है?
जॉन-जोसेफ: हाँ, बिल्कुल। यह हमेशा महत्वपूर्ण है की किसी के विचारोंको उनके अपने अनुभवोंके के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये। यह १९८१ की बात है जब मेरी भारत से पहली बार मुलकात हुई। तो यह कल की बात नहीं है। यह वह वक्त है जब मूलतः चीन और भारत ने अपनी आर्थिक और राजनीतिक विकास की रणनीति को बदलने का निर्णय लिया था। इसके अलावा, लगभग उसी समय, मैने आर्थिक और सामाजिक विज्ञान की प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण की थी। और मुझे मेजर से सम्मानित किया गया इसलिए मेरी नियुक्ति École Normale Supérieure (ENS - इकोल नोरमाल सुपेरियर) में अध्यापक के रूप में हुई थी। और वहां हमें अनुसंधान करना था और इसलिए संयोग से ऐसा हुआ के मेरी सफलता को मनाने के लिए, मेरी पत्नी के साथ दो महीने के लिए हम भारत गए। वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद छुट्टियाँ मनाने। और हम दक्षिण भारत में बम्बई, हैदराबाद, मद्रास, केरल होते हुए वापस लौटे। यह हमारी भारत से पहली मुलाकात थी इसलिए हमने वहा लंबा समय बिताया। हमने बस, ट्रेन ली और जैसा कि वे कहते हैं, बैकपैकर की यात्रा की। और यह भारत का रूप मेरे लिए एक अचंबा था क्योंकि उस वक्त फ्रांस में भारत के बारें में बोलने का रिवाज था की यह एक बहुत गरीब देश है, यहाँ की मुसीबतें, यहांकी जातियाँ। वास्तव में, भारत के सभी नकारात्मक पहलू और उस वक्त दो महीने के लिए वहाँ, हम भारत के एक दूसरे ही पहलू की पहचान कर रहे थे। अर्थात् भारत जो सचेत है,
ऊर्जावान है, जो हर सुबह उठता है, जो जीवित है, जो रंगीन है, जहाँ खाना बहुत स्वादिष्ट होता हैं। तो इस तरह यह विरोधाभास मुझे परेशान करता है, उत्तेजित करता है और साथ ही मुझे एक थीसिस विषय चुनना था और इसलिए मैंने थीसिस विषय के लिए एक प्रस्ताव रखा : भारतीय मॉडल की चीनी मॉडल से तुलना और १९८१ की इस धुपकाल से, अब ३० वर्षों से मैंने गहराई से, अपने परिवार के साथ भारत में वास्तव किया। एक वैज्ञानिक के रूप में और उसके बाद मैं वहां, नई दिल्ली में स्थित Le Monde (ल मोंद) अखबार का पत्रकार बनकर और उसके बाद मैंने भारत पर लिखना बंद कर दिया क्योंकि वहाँ १९८९-९० में बर्लिन की दीवार गिर गयी और इसलिए मुझसे पूर्वी देशों पर काम करने के लिए पूछा गया। लेकिन मैंने हमेशा भारत के साथ एक बहुत करीबी रिश्ता बनाए रखा। यहाँ तक की मेरी बेटियोंमे सबसे छोटी बेटि ने एक भारतीय से शादी की है और इसलिए मेरे ससुराल वाले भारत में हैं, मध्य भारत के एक शहर विदिशा में, जो भोपाल के निकट है। वे लोग किसान हैं। हम बहुत करीब हैं और जैसा कि कहावत है, एक नस्ल से दूसरी नस्ल में जाना, यह मै बहुत सहजता से कर सकता हूँ। मैं एक इंसान हूँ और मैं फ़्रांसीसी भी नहीं हूँ, न ही भारतीय। मैं पृथ्वी ग्रह का एक नागरिक हूँ, एक बहुत मजबूत फ्रेंच और भारतीयता के साथ... चूँकि मैंने भारत में भी लगभग उतना ही समय बिताया है जितना की फ्रांस में।
अनुबंध: हाँ और मैं इसे आपके व्यावसायिक परिचय में भी देखता हूँ की इसमें एक सर्वसमावेशकता है। न केवल पेशेवर स्तर पर, आप न केवल एक अर्थशास्त्री हैं, आपकी रुचियाँ इससे भी आगे जाती हैं। लेकिन यह भी है की आपका देशों पर, महाद्वीपों पर एक काफी व्यापक दृष्टिकोण है। मैं अक्सर आपके विचार, आपकी टिप्पणियाँ LinkedIn पर देखता हूँ और मैं पाता हूं की आप किसी पूर्वनियोजित डोक्सा का पालन नहीं करते हैं, जैसे की फ्रांस में, यूरोप में और कभी-कभी भारत में भी विविध विषयों पर जो एक तरह की आम सहमति मौजूद दिखती है। आपकी राय अक्सर उससे हटकर होती है। और भारत में वर्ष १९९०, जिसे आपने उद्धृत किया है निश्चित रूप से यह वह वर्ष था भारतीय अर्थव्यवस्था के विश्व के लिए खुलने का। यह एक महत्वपूर्ण वर्ष था और तब से, यह मानना होगा की कहीं न कहीं हमने एक लम्बा सफ़र तय किया है... कम से कम इतना तो कह सकते है की उतार-चढ़ाव से चिह्नित सफ़र। तो हम इस पर वापस आएंगे।
अगर आप की सहमती है तो मैं एक दिन चाहता हूँ की आपसे आपकी पुस्तकों के बारें में भी एक समर्पित बातचीत हो। लेकिन इस साक्षात्कार के लिए मेरा प्रस्ताव है, आज मैं आपके साथ भारतीय, फ्रेंच और यूरोपीय अर्थव्यवस्था की तुलनात्मक, वर्तमान स्थिति की एक झलक देखना चाहूंगा। हां, इससे पहले कि मैं आपको कुछ लेखा-चित्र दिखाऊं, क्या आपके पास कहने के लिए कुछ शरुआती शब्द हैं?
जॉन-जोसेफ: हाँ। सबसे पहले, मैं उस अर्थशास्त्रियों की एक धारा से आता हूँ जिसे हम कहते हैं विधर्मी अर्थशास्त्री। विधर्मी, रूढ़िवादी अर्थशास्त्रियों के विपरीत, जो मानते हैं कि
एक डोक्सा, एक सिद्धांत है जो सभी अर्थशास्त्रियों के लिए समान होना चाहिए
और इस विधर्मी स्कूल में मेरे कुछ आदर्श
है जिनका मुझपर प्रभाव है जिसमे है अमर्त्य सेन।
भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन। उन्हें जानने से पहले मैं Gunnar MYRDAL (गुन्नार मिर्डल), जो विधर्मी अर्थशास्त्र के संस्थापक माने जाते है। मै उनसे बहुत प्रभावित हुआ था। वह स्वीडिश है, और जिन्होंने एक किताब लिखी थी, "एशियन ड्रामा" नामक १००० पृष्ठों की एक बड़ी पुस्तक, जो बहुत ही भारत-केंद्रित थी और मेरे एक तीसरे "गुरु" है, जैसे हम भारत में कहते हैं एक विधर्मी अर्थशास्त्री जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए था लेकिन नहीं मिला क्योंकि वह विधर्मी थे, जिनका नाम है Albert HIRSCHMAN (अल्बर्ट हिर्शमन)। और जिन्होंने शायद मेरे लिए, मैं जिन आर्थिक मॉडलों का उपयोग करता हूँ, उस पर सबसे प्रमुख भूमिका निभाई... यह बड़े आर्थिक मॉडल हैं और इसलिए मैंने सामाजिक, राजनीतिक, भू-राजनीतिक विज्ञान का अध्ययन किया। क्यों? क्योंकि अर्थशास्त्री, उनका मानना है कि अर्थव्यवस्था एक बंद डिब्बा है। जबकि हम विधर्मी, हम मानते हैं कि अर्थव्यवस्था एक संपूर्ण अलग विषय है लेकिन यह गैर-आर्थिककारकों द्वारा प्रभावित है जो कभी-कभी आर्थिककारकों से कहीं अधिक भारी पड़ते है। यही रूपरेखा है।
अनुबंध: हा और अमर्त्य सेन का उदाहरण काफी प्रासंगिक हैं क्योंकि उन्होंने ही Human Development Index (HDI) [मानव विकास सूचकांक (एचडीआई)] की अवधारणा की उत्पत्ति की थी और केवल जीडीपी ही नहीं और इसलिए यह आपके विधर्मी अर्थशास्त्र से मेल खाता है। मैं बाद में उन अन्य अर्थशास्त्रियों की कितोंबो पर गौर करूंगा जिनका आपने जिक्र किया। फ़िलहाल, मेरा सुझाव है कि मैं कुछ लेखा-चित्र आपसे साझा करूँगा...
आइये फ़्रांसीसी अर्थव्यवस्था से शुरुआत करें, तो विषय बहुत हर्ष और उल्हास का नहीं है...
यह फ़्रांस का सार्वजनिक ऋण है और हमारे पास यहाँ १९९० के दशक से मोटे तौर पर २०२५ तक के आंकड़े है। तो हम फ़्रांस के राष्ट्रिय ऋण के बारे में अच्छी तरह जानते हैं। यह अब ३३०० अरब यूरोसे अधिक है और इसमें भी वृद्धि हुई है साल के १२ महीनों में, खासकर यदि आप २०१७ से मैक्रॉन के राष्ट्रपति पद के वर्षों पर गौर करते हैं तो... हम देख सकते है की २०१७ में यह बढ़ कर २२०० अरब यूरो था और आज यह ३३०० अरब यूरो से थोड़ा बढ़कर है। यहाँ एक हजार से ज्यादा अरब यूरो की वृद्धि हुई है। इस पर आपकी कोई टिपण्णी है? इन आंकड़ों पर?
जॉन-जोसेफ: हाँ, क्योंकि यह स्पष्ट है... यह कुछ ऐसा है जो एक दौर को चिह्नित करता है, एक संरचनात्मक संकट का, गहरे संकट का दौर, दोहरे स्तर पर।
पहला, यह एक राजनीतिक संकट है। यदि श्री मैक्रों (Emmanuel MACRON) के साथ फ़्रांसिसी राष्ट्रिय ऋण का विस्फोट होता है तो ऐसा इसलिए है क्योंकि श्री मैक्रॉन का चुनाव गलत तरीके से हुआ था। वास्तव में उनका चुनाव वैध नहीं है और उन्हें दुसरोंको रोकने के लिए चुना गया था, जैसे की श्री फ्रांस्वा फियों (François FILLON) जिन्हें राष्ट्रपति पद की दौड़ से बाहर रखा गया था और पूरी तरह से निराधार या भ्रांतिपूर्ण कारणों के तहत। बेशक इसमें भ्रष्टाचार का मामला था। लेकिन यह कारण उनकी उम्मीदवार को अस्वीकार करने की लिए उचित नहीं था और क्योंकि मैक्रों प्रस्थापितोंके उम्मीदवार थे और यह प्रस्थापित असल में श्रीमती ल पेन (Marine LE PEN) से डर गए थे। तो फ्रांस में २०१७ से यह एक बहुत बड़ा राजनीतिक संकट है। और यह आज भी अस्तित्व में है इसलिए सियासी सत्ता को अपनी क्षमता से अधिक खर्च करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। एक तरह से हम कहेंगे की वह इस सामाजिक शांति को खरीदने के लिए।
और इसमें दूसरा जो आर्थिक पहलू है वह यह है कि फ्रांसीसी अर्थव्यवस्था में अब कोई गतिशीलता / सचेतना नहीं बची है। यह भारी ऋण बस इतना ही अभिव्यक्त करता है कि विकास का दर अब प्रति वर्ष मुश्किल से ०,५ या १% है और यदि यह फ्रांसीसी अर्थव्यवस्था गतिशील नहीं है तो ऐसा इसलिए है क्योंकि, कैसे कहें, यह एक ऐसा मॉडल है जिसमें बहुत अधिक कर लगाए गए हैं, बहुत सारे पेचीदा नियम लगाये गए है, एक केन्द्रीय सत्ता के द्वारा जो उद्यमियों को रोकता है स्वयं को सही मायने में अभिव्यक्त करने में। और जो एक अमीर वर्ग के आसपास केंद्रित है जिसे हम सीएसी ४० (CAC 40) कहते हैं, यानी बड़े फ्रांसीसी उद्योगसमूह जो मंत्रालयों और l'Élysée (राष्ट्रपति भवन) के गलियारों में देखे जाते है, जैसे की बूईग (Bouygues), दासो (Dassault)। और इसी तरह, जो एक चमत्कारसे सारे प्रसार माध्यमों पर भी मालिकाना हक रखते है! ठीक है? इसलिए फ्रांस में, हमारे सामने सचमुच एक गहरा संकट है। क्योंकि मुझे लगता है, मोटे तौर पर, सारकोजी (SARKOZY) के बाद, नहीं राष्ट्रपति शिराक (CHIRAC) के बाद, हमारे सामने आर्थिक और राजनीतिक संकट के सभी संकेत मौजूद हैं। और यह दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। यह चिंताजनक है और हम इसे मैडम ल पेन के मामले में देख सकते हैं... क्योंकि अभी वे कोशिश कर रहे हैं की उन्हें चुनावी दौड़ से हटाया जाएँ। तो खैर, यह संकट जारी रहेगा।
अनुबंध: हाँ, यह सवाल भी उत्पन्न होता है क्योंकि हमें बताया गया था की इमैनुएल मैक्रॉन (Emmanuel MACRON) "अर्थव्यवस्था के मोजार्ट" है और यह की उनके आने से स्थिति में सुधार होना था। यकींनन यह समस्या की शुरवात २०१७ में नहीं हुई और यह इससे पहले से है। और हम बहुत अच्छी तरह से जानते है, जैसे की जब आपने उद्धृत किया सार्कोजी (SARKOZY) यहां तक कि ओलोंद (HOLLANDE) का आपने जिक्र किया। सार्कोजी, जिन्होंने २००८ के आर्थिक संकट के बाद सार्वजनिक धन का उपयोग बड़े फ्रांसीसी बैंकों को दिवालियापन से बचाने के लिए, जैसे की बीएनपी पारिबा (BNP Paribas), क्रेदी एग्रीकोल (Crédit Agricole)। तो, यह जनता का पैसा था क्योंकि इन बैंकों ने इसे सट्टेबाजी में निवेश किया था, संयुक्त राज्य अमेरिका के आर्थिक संकट (subprimes) के समय।
जॉन-जोसेफ: आपका कहना सही है!
अनुबंध: कहीं न कहीं, उन्होंने जैसे जुआ खेला।
जॉन-जोसेफ: बिल्कुल!
अनुबंध: और फिर फ़्रांसीसियों ने उन्हें दिवालियापन से बचा लिया। दूसरी बात, हम यह भी जानते हैं कि फ़्राँस्वा ओलांद (François HOLLANDE) ने २०१३ से, सीआईसीई (CICE - Crédit d'Impôt pour la Compétitivité et l'Emploi) - “प्रतिस्पर्धा और रोजगार के लिए कर्ज”, जैसे कर बड़े उद्योगों को मांफ करके उपहार में दिए, यानी हर साल १८ अरब यूरो, बिना किसी प्रत्यक्ष शर्तों के बदले। इसके अतिरिक्त, २०१८ से ५ अरब यूरो प्रति वर्ष आईएसएफ (ISF- Impôt Sur la Fortune) के जरिये श्री मैक्रों ने दिए। शायद फ्रांसीसी यह सवाल पूछ रहे हैं की यह सब पैसा कहाँ जाता है? क्योंकि हम यह नहीं देखते कि फ़्रांस में सामाजिक सुरक्षा बेहतर हुई है, या शिक्षा पहले से बेहतर है, या स्वास्थ्य बेहतर है। हम इस धन का उपयोग किसलिए करते हैं और यह अगर "चाहे जितना भी लगेगा" का मामला है तो वास्तव में यह क्या करने के लिए है?
जॉन-जोसेफ: जैसा की मैंने आपसे कहा था यह एक ऐसी व्यवस्था है जो सामाजिक शांति खरीदती है। ठीक है? कहने का तात्पर्य यह है कि, उदाहरण के लिए, नुकसान में जाता सामाजिक सुरक्षा का खाता, खासकर के स्वास्थ्य प्रणालि। खैर यह प्रणाली पूरी तरह से अनियंत्रित है। हमारा दवाइया, प्रयोगशालाए , इत्यादि पर काफी खर्च होता है। और यह एक नतीजा है उस हकीकत का जिसमे शासन पर एक अनैतिक प्रभाव है, प्रयोगशाला लॉबी, डॉक्टर, वगैरह, वगैरह का और इसलिए वह (मैक्रो) पैसे बांटता है, इन सभी लॉबियों को, उनके बिचौलियों को और क्यूंकि वो सीधे तरीके से इन लोगोंको पैसे नहीं दे सकता है ना? क्योंकि उसकी मुश्किल राजनीतिक वैधता की है, वह पैसा दाएँ-बाएँ वितरित करता है। तो फ्रांस एक देश है जहाँ नल लीक करते हैं। हम इसे टपकते नल कहते हैं और यह आपको बताता है की क्यों इस व्यवस्था के अत्यधिक कर की वजह से लोगों में अब काम करने की इच्छा नहीं रह गई है।
यह मेरा कोई दक्षिणपंथी भाषण नहीं है। यह एक गहन वास्तविकता है। हमें अब सुबह जल्दी उठने की इच्छा नहीं क्यूंकि अगर मैं काम पर नहीं जाता हूँ, तो कोई बात नहीं, बेरोजगारी भत्ते का लाभ हैं, और भी मुआवज़े है, वगैरह, वगैरह। और हर बार जब वे कुछ कोशिश करते हैं, इस व्यवस्था में सुधार करने के लिए, यह प्रणाली जो अपना संतुलन खो चुकी है, व्यय और आय पर नियंत्रण नहीं है, तो उसके विरोध में एक सामाजिक आन्दोलन शुरू हो जाता है और चूंकि उनकी कोई राजनीतिक वैधता नहीं है अंततः सभी नल खुल गये हैं।
अनुबंध: मेरे पास यहाँ बेरोजगारी पर, फ्रांस में बेरोजगारी दर पर एक आखिरी पहलू है। इस
तरह हम इसकी भारत के साथ तुलना कर सकेंगे। तो हम पिछले ५ वर्षों की दर देखते हैं, यह अब लगभग ७,३ है।मान लीजिए की यह सबसे ताज़ा आंकड़ा है। तो इस पर आपकी कोई
टिप्पणी है? अन्यथा मैं भारत के बारें में बात करूँगा।
जॉन-जोसेफ: ओह... बहुत संक्षेप में... ऐसा है की यह सब आंकड़े, यह एक संस्थागत निर्माण है एक प्रकार की प्रस्तुति का। वास्तव में यह बेरोजगारी दर का माप बस उन लोगों तक सिमित है जो बेरोज़गारी लाभ मांगते हैं और जो इसके हकदार हैं। वास्तव में, महत्वपूर्ण बात रोज़गार दर है। यानी, १०० लोगों में से, जिनकी काम करने की उम्र है, मेरा मतलब है काम करने की उम्र से है। कितने लोग वास्तव में कोई भुगतान के बदले में काम करते है और यही फ्रांस में समस्या है की यहाँ रोज़गार दर गिर गई है। ज्यादा उम्र के लोगोके बीच यह सर्वविदित है, यानी ५० – ५५ वर्ष से अधिक उम्र के लोग और उनकी स्थिति तेज़ी से बिगड़ रही हैं। इन लोगों को, उन्हें बेरोजगार के रूप में पंजीकरण करने का हक नहीं हैं। या एक निश्चित समय के बाद उन्हें इससे निकाल दिया जाता हैं। और फिर सबसे बड़ी बात है युवा बेरोज़गारी और विशेष रूप से उपनगरों में रहने वाले युवा लोग। स्थायी रूप से फ्रांस की हालत उपनगरों में बहुत अस्थिर है। वास्तव में, यही पर केन्द्रित है। गरीब आबादी का बड़ा हिस्सा यहीं पर केंद्रित है। और वहाँ युवा लोगों का बेरोजगारी दर ५०% से अधिक है। लेकिन इन युवाओं को बेरोजगार के रूप में पंजीकरण कराने का अधिकार नहीं है। इसलिए वह इस लेखा-चित्र में नहीं हैं। इस वक्र में नहीं है जो आप दिखा रहे हैं। तो, वास्तव में, फ्रांस में, एक ऐसा देश जहाँ हम मोटे तौर पर कहेंगे की जनसंख्या का २५ या ३०% हिस्सा बाकी सब लोगोंके लिए काम करता है और यह ऐसा बहुत आगे तक नहीं खिंचा जा सकता। तो, असल में फ्रांसीसी लोगोंको काम करने में वापस लाना आवश्यक होगा। बेशक, उन्हें अच्छे मौके दे कर, उन्हें अच्छी तनखा दे कर और इस दिशा में हमारी शुरुआत ख़राब रही है क्योंकि इसके लिए राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में गहन सुधारों की आवश्यकता होगी। इसलिए मैं आने वाले वर्षों के लिए बहुत आशावादी नहीं हूं।
अनुबंध: हां आप बिल्कुल सही फरमा रहे हो। एक विषय यह भी है कि यह आवश्यक है, शायद हेमें बरोजगारी को पेशे के अनुसार भी देखना होगा क्योंकि फ्रांस में आईटी, इंजीनियरिंग में हम लोगों की तलाश कर रहे हैं। कृषि क्षेत्र में भी लोगों की तलाश की जा रही है। तो, हम कह सकते हैं कि ये अलग-अलग पेशे हैं जहा स्थिति अलग है...
जॉन-जोसेफ: यह बिल्कुल सच है.
अनुबंध: यह सभी व्यवसायों के लिए नहीं है।
जॉन-जोसेफ: यह बिल्कुल सही है. लेकिन यहां भी तर्क वही है। इन भोजनालयोंके व्यवसायों में, मजदूरी के व्यवसायों में, कृषि में बल्कि आईटी में भी, हम पद भर नहीं सकते वह इसलिए हैं क्योंकि वहाँ काम करने के लिए वास्तविक प्रोत्साहन नहीं है। हम एक ऐसी व्यवस्था में हैं जहाँ पदों को भरने के लिए, जहां उनकी आवश्यकता है, हमारे पास पर्याप्त उत्तेजना नहीं हैं।
अनुबंध: हाँ और इस विषय पर अंत में मैं कहूंगा कि यह भी हमें समझाता है, या यह हमें बताता है कि कभी-कभी विदेशी श्रमिकों की आवश्यकता क्यों है... वह इसी ज़रूरत को पूरा करने के लिए है।
जॉन-जोसेफ: बिल्कुल।
अनुबंध: इंजीनियरिंग या कृषि में भी क्योंकि वहाँ पर्याप्त लोग नहीं हैं, या वे काम करना नहीं चाहते या तो वे इसके लिए योग्य नहीं हैं, या फिर वे पर्याप्त संख्या में नहीं हैं।
जॉन-जोसेफ: बिल्कुल।
अनुबंध: शुक्रिया। तो अब भारत की बात की जाये। यह उसका बेरोजगारी दर
है और जो की, जाहिर है की यह स्थिर हो रहा है। और यह १०० में
से ८.२% है। यदि आपके पास इस पर कोई टिपण्णी नहीं है तो मैं आगे बढ़ता हूँ...
जॉन-जोसेफ: हाँ, हाँ, बिल्कुल है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है। किसी के लिए भी जो भारत को जानता है। और जरुरत नहीं की वह कोई महान अर्थशास्त्री हो, उसके लिए यह स्पष्ट है कि इस तरह के आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में हम जब किसी भी जगह जाते हैं तो हम बड़े पैमाने पर बेरोजगारी देखते हैं। ऐसे लोग जिनके पास नौकरियाँ नहीं हैं। विशेषकर युवा लोगों के बीच आज बहुत बेरोजगारी है। तो फ्रांस के बारे में, आंकड़ों के बारें में हम जो कह रहे थे यही समस्या यहाँ भी है। यानी, बेरोजगारी दर की जो हमारे पास एक तस्वीर है वह अत्यंत सटीक मानदंडों पर आधारित है। क्योंकि भारत में ऐसे नहीं होता। आप खुद को ऐसे ही, आसानी से बेरोजगार घोषित नहीं कर सकते क्योंकि वहा आपको जाकर पंजीकरण कराना होता है। जिसके लिए आपके पास पंजीकृत होने का अधिकार होना चाहिए। वास्तव में, बेरोजगारी के मामले में भारत की समस्या फ्रांस से कहीं अधिक मुश्किल है। क्योंकि वहा कई वर्षों से एक ऐसी प्रणाली है, एक ऐसा आर्थिक मॉडल है जो बड़ी कंपनियाँ, बड़े लोग, बड़े कार्य, बड़े उपकरण बस इनके लिए ही अनुकूल है। और जो श्रमिकोंके उचित स्तर पर योगदान का इस्तेमाल नहीं कर पाता। क्योंकि जिस तरह से जनसंख्या में वृद्धि हुई है, जो लोग नौकरी के बाजार में आते है, लगभग १०० युवाओं में से जो नौकरी के बाजार में आते है, उनमे से केवल २५ लोग ही वास्तव में स्थिर रोजगार पातें है। २५ जो थोड़ा बहुत काम करते है और ५०% जिनके पास वास्तव में नौकरियाँ नहीं हैं।
अनुबंध: हाँ। आप सही हैं क्योंकि हम इसे भारत की बिना रोजगार वाली, उपरोक्त रोजगार न निर्माण करने वाली आर्थिक वृद्धि भी कहते है। भारत में ऐसे अमीर उद्योग समूह है जो भारतीय अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा नियंत्रित करते है। तो यह समस्या भी है। निम्नलिखित लेखा-चित्र भारत का राष्ट्रीय ऋण दिखाता है...
मैंने इसे स्टैटिस्टा वेबसाइट से लिया है। इसमें मैं देख रहा हूँ कि ऐसा लगता है की पिछले कुछ वर्षों में यह काफी स्थिर रहा है।
जॉन-जोसेफ: हाँ, बिल्कुल सही। बिल्कुल, क्योंकि यहाँ पर हमारे पास... इस पर गौर
कीजिये....यह अनुपात (ratio) जीडीपी / सोने की तुलना में है। भारत की जीडीपी में प्रत्येक वर्ष लगभग ६-७% की
वृद्धि हो रही है। तो अगर आपका कर्ज आपकी विकास दर की तुलना में तेजी से नहीं बढ़ रहा है तो आप
अपने ऋण अनुपात (ratio) को स्थिर करते हैं।
इसके बावजूद इसकी असल मात्रा अभी भी काफ़ी ऊँची है। इसलिए आपको सावधान रहना होगा। क्यों? क्योंकि भारत एक गरीब देश है जिसके पास ज्यादा कर राजस्व नहीं है। ठीक है? तो कर्ज़ तो चुकाना ही होगा। और वास्तव में भारतीय सार्वजनिक प्रणाली को अपना कर्ज चुकाने में कठिनाई हो रही है क्योंकि वहाँ पर्याप्त कर राजस्व नहीं है और फिर अंततः भारत में महंगाई भी बहुत अधिक है... तो ये महत्वपूर्ण है। क्यों? क्योंकि यह ऋण एक ऐसा ऋण है जिसे हम कहते हैं नाममात्र ऋण जो अर्थात् रुपये में है। यदि पिछले वर्ष आपका ऋण १०० था और आपके यहां महंगाई की दर लगभग ७-८-१०% है। चलो, मैं भारत के लिए १०% लूंगा। इसका मतलब यह है कि अगले वर्ष आपकी जीडीपी १०० से ११० हो जाती है। लेकिन वास्तव में कोई वृद्धि किए बिना! यह सिर्फ मुद्रास्फीति (महंगाई) का प्रभाव है। अतः भारत अपने सार्वजनिक ऋण का प्रबंधन कर रहा है, इसे स्थिर करने के लिए सक्षम है। हम सापेक्ष शब्दों में कहेंगे, वास्तविक विकास के वृद्धि के दम पर जो लगभग ७% है जिसमे आप मुद्रास्फीति (महंगाई) जोड़ते है तो यह १७% प्रति वर्ष बन जाता है, जो इसे सार्वजनिक खर्च में वृद्धि करने की अनुमति देता है और इसलिए आपका ऋण मोटे तौर पर उचित स्तर पर रहता है...
अनुबंध: हां, और फ्रांसीसी ऋण पर भी एक छोटी टिप्पणी... और आप मुझे इसकी पुष्टि करेंगे क्या मेरा कहना सही है... अब बात यह है कि आज की स्थिति में फ्रांस का मुख्य बजट यह उस पर लगे कर्ज के ब्याज को चुकाने में ही लग जाता है। मतलब यह उसके मुख्य कर को उतारने के लिए भी नहीं है! तो, यह एक बहुत बड़ी रकम है।
जॉन-जोसेफ: बिल्कुल। क्योंकि फ्रांस अपने कर्ज पर बहुत कम ब्याज दर, जैसे की वह केवल एक या डेढ़ प्रतिशत का ही भुगतान करता है। जबकि भारत इससे कहीं अधिक भुगतान करता है। इसके ऋण पर ब्याज का दर औसतन ५ से ६% है लेकिन फ्रांसीसी मामले में, क्योंकि यहाँ कोई खासा विकास दर नहीं है, मूलतः वास्तव में जिसे ०% ही माना जाये। और फिर यहाँ कोई मुद्रास्फीति (महंगाई) नहीं है, तो इसलिए वास्तव में उसका ऋण बढ़ता ही रहता है और इस वजह से मुझे पैसा उधार लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है, अपने लिए हुए ऋण को चुकाने के लिए। भारत के मामले में यह प्रणाली बहुत अलग है क्योंकि मैं जैसे कहता हूं कि यहाँ विकास हो रहा है, मुद्रास्फीति (महंगाई) भी है और उसके ऊपर वास्तविकता में भारतीय वित्तीय प्रणाली पूरी तरह राज्य के स्वामित्व वाले सार्वजनिक बैंकों से नियंत्रित है। दरअसल इसलिए, राज्य के स्वामित्व वाले सार्वजनिक बैंकों को पहले सरकारी ऋण की भरपाई का आदेश दिया गया है। इसलिए भारत सरकार को कोई बड़ी कठिनाई नहीं है, भले ही वह काफी अधिक ब्याज दर चुकाता हो क्योंकि मुद्रास्फीति (महंगाई) के कारण, जैसे की मैंने आपको बताया था कि इसकी औसत ब्याज दर ५-६% है। लेकिन चूंकि विकास दर ७% है, इसलिए अंततः आपने जैसे पहले लेखा-चित्र में दिखाया था, ऋण अनुपात सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में मोटे तौर पर स्थिर रहता है, लगभग ६०% के करीब...
अनुबंध: हाँ। फ्रांस और भारत के बीच एक और फर्क यह भी होगा कि भारत के पास अपनी मुद्रा का पुनर्मूल्यांकन
करने का अवसर है।
जॉन-जोसेफ: हाँ। बिल्कुल सही। आप सही कह रहे हैं।
अनुबंध: जो फ्रांस के लिए संभव नहीं है।
अब,
चूंकि आपने पहले विधर्मी
अर्थशास्त्र का जिक्र किया था, मेरे पास एक और लेखा-चित्र है, यह भारत के बाल
मृत्यु दर पर है और यह दर्शाता है, शायद लेखा-चित्र पर यह बहुत स्पष्टता से नहीं
दिख रहा लेकिन हम कह सकते हैं कि १९६७ से यह जो पहले १४० पर था वह २०२० में २६ थी। हम देखते हैं कि भारत में
मृत्यु दर घट रहा है... जो एक अच्छी बात है।
जॉन-जोसेफ: हाँ। बिल्कुल।
अनुबंध: यहाँ और मैं अब इसकी तुलना फ्रांस के साथ करने
जा रहा हूँ, लेकिन मैं सिर्फ
फ्रांस ही नहीं, इसमें यूरो झोन भी है और यहाँ हम मृत्यु दर से शुरुआत
करेंगे और इसमें फ्रांस
भी शामिल है... तो आप देख सकते हैं की यह बाल मृत्यु दर है और हम देखते हैं कि वे देश जो गहरे लाल रंग में हैं, जिस्न्मे फ्रांस
भी शामिल है, यह ५% से अधिक
है। १००० के लिए। यह
है बाल मृत्यु दर, प्रति १०० जन्मों पर, एक वर्ष के भीतर हुई मौतों की संख्या।
जॉन-जोसेफ: आप सही कह रहे हैं, बिल्कुल सही।
अनुबंध: क्या आपके पास यूरोप के इन सभी देशों के लिए कोई टिपण्णी है? और अगर हम इसकी तुलना भारत से करें तो?
जॉन-जोसेफ: आपने भी मेरी तरह देखा कि भारत की मृत्यु दर बहुत अधिक है क्योंकि प्रति १००० बच्चों के जन्म पर हम २० से अधिक मृत्यु दर पर हैं, ठीक है? अगर उस लेखा-चित्र को आप वापस रखें तो आप देखेंगे की वहाँ एक बहुत स्पष्ट सुधार हुआ है... कितना आंकड़ा हैं? हम लगभग ३० पर पहुँच गए हैं।
अनुबंध: हम २०२० में २६ वें स्थान पर हैं। हाँ, यह सही है, २६...
जॉन-जोसेफ: वैसे भारत से जो आंकडे आते है उनसे आपको बहुत सावधान रहना होगा क्योंकि जैसे मेरा वहाँ गांवों में सांख्यिकी संग्रहकर्ताओं के साथ काम करने का अनुभव रहा है, वह लोग वास्तव में गांव में जाते भी नहीं! उनकी जांच में भारी भ्रष्टाचार है...
अनुबंध: तो, यह जांच "विश्व बैंक समूह" (स्रोत) से आयी है।
जॉन-जोसेफ: मुझे लगता है कि हम वास्तव में अभी भी भारत में लगभग ३०-३५ के आस पास हैं... इसलिए अगर इसे विकसित देशों के संबंध में देखें तो इसकी कोई तुलना नहीँ हो सकती। इसलिए, भारत में शिशु मृत्यु दर काफी बड़ी है और यह आसानी से समझा जा सकता है क्योंकि गरीबी का स्तर, गरीबी वाले क्षेत्र अभी भी बहुत है। लेकिन साल दर साल में शिशु मृत्यु दर में आयी महत्वपूर्ण गिरावट जिसे आपने दिखाया वह सही हैं ... यह एक विकास है। यह भारत के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। यह गिरावट क्यों आयी है? हमें खुद से यह सवाल पूछना होगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं की भारतीय स्वास्थ्य प्रणालियों में काफी सुधार किया गया है, विशेष रूप से गाँवों में, कस्बों में। और प्रान्तों में औषधालयों के लिए अनुमति देना और इसमें महिलाओं को लेकर स्वास्थ्य प्रणालियों में स्पष्ट रूप से सुधार हुआ है।
अनुबंध: हाँ, लेकिन अगर हम फ्रांस पे लौटे तो, इसे समझना कठिन है... क्योंकि फ़्रांस तो दुनिया में अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर गर्व करता है। हालाँकि अगर हम इसकी जर्मनी, पोर्तुगल, स्पेन, इटली से तुलना करें तो यह अंतर स्पष्ट है.... हम कैसे समझे इसे...?
जॉन-जोसेफ: नहीं, सावधान रहें। फिर से आंकड़ों का खेल एक जटिल खेल है। इसलिए सावधान रहें। फ्रांस में जन्म दर अन्य देशों से, जिन्हें आपने दिखाया उनसे काफी अधिक है। तो यहाँ तुलना के लिए हमारे पास बिल्कुल भी समान जन्म स्तर नहीं है... उदाहरण के लिए, जैसे स्पेन की जन्म दर में पूर्ण गिरावट आई है। इटली में भी ऐसा ही है। तो ये देश जिनका बाल मृत्यु दर बेहतर है वह इसलिए क्योंकि वहाँ बच्चे (जन्म दर) बहुत कम हैं। और इसलिए हम जो बच्चे पैदा होते हैं, उनके लिए बहुत अधिक ध्यान देते हैं। फ्रांस के मामले में एक ओर तो प्रजनन दर उच्च बनी रहती है। प्रजनन दर, यानी प्रति महिला बच्चों की संख्या और दूसरी ओर फ्रांस एक आप्रवासन (immigration) का देश है, ठीक है? अब फ़्रांस के अधिकांश जन्म इन बाहर से आये परिवारोंमे है जिनमें माघरेब से, यहाँ तक कि भारत से भी लोग है और इन के परिवारों में है। और इनमे शिशु मृत्यु दर अपेक्षाकृत काफी ज्यादा है क्योंकि इनके परिवार बड़े हैं, क्योंकि स्वास्थ्य महंगा है और क्योंकि हम फ्रांस में आप्रवासन के इस उच्च स्तर को अनुकूलता से स्वीकार नहीं कर पाए। आपने देखा होगा कि खास करके राजनैतिक स्तरपर.... फ्रांस में यह राजनीतिक बहस के प्रमुख विषयों में से एक है। हर साल यहाँ ५००,००० - १,०००,००० के बीच बाहर से लोग आते है जो फ्रांस के लिए काफी ज्यादा है और यह जन्म दर में परिलक्षित होता है। इस तथ्य से कि हमारे यहाँ जन्म दर, शिशु मृत्यु दर अन्य की तुलना में अधिक है। यही वह महत्वपूर्ण वजह है जिस कारण हमें सतर्क रहना होगा जब भी हम किसी लेखा-चित्र को, आंकड़ो को समझना चाहते हैं।
अनुबंध: तो मैं आपसे सहमत हूं.... और यह स्पष्ट करना जरुरी है की यह लेखा-चित्र एलुसिड (Élucid) वेबसाइट से लिया गया है। हाल ही में इस साइट पर जब अर्थशास्त्री इमैनुएल तोड़ (Emmanuel TODD) का साक्षात्कार लिया गया था तब।
शिशु मृत्यु दरों के विषय
को समाप्त करने के लिए अब हम यूरोप में
शिशु मृत्यु दर का वर्तमान स्तर समझेंगे और आप देख सकते हैं कि यह दिलचस्प है।
फ्रांस के लिए, आपने अभी कहा, लेकिन ऐसा क्यों है? हमारी शिशु मृत्यु दर बाकिओंसे अधिक क्यों है? हम उदाहरण के लिए रूस को देखते हैं, जिसके लिए वास्तव में इस में कमी आयी है। यह हकीकत जर्मनी के लिए भी है। आपके पास इस पर कोई टिप्पणी है, जब हम इन देशोंकी आपस में तुलना करते है?
जॉन-जोसेफ: नहीं, फिर से रूस के लिए हमें बहुत सावधान रहना होगा। रूस एक ऐसा देश है जो पूर्णतः अपनी जन्म दर के पतन का अनुभव कर रहा है... ठीक है? रूसी आबादी में अब विशेष रूप से प्रतिस्थापित, मध्य एशिया से आने वाले प्रवासी लोग है, जिनका इन आँकड़ों में समावेश नहीँ है, ठीक है? नहीं, फ्रांस के बारे में चिंता की बात यह है कि यहाँ शिशु मृत्यु दर में वृद्धि हो रही है, पिछले लगभग दस वर्षों से। देखो, फ्रांस ही एकमात्र ऐसा देश है, उन देशों में से एक जहां यह तेजी से बढ़ रहा है, काफी तेजीसे, विशेष रूप से जर्मनी के तुलना में। और मैंने आपसे कहा था कि ऐसा इसलिए है क्योंकि अब आबादी का स्वरूप बदल गया है। अब जनसंख्या पहले जैसी नहीं रही। इसलिए क्योंकि आपके पास प्रत्येक वर्ष, ५००,००० और १,०००,००० के बीच प्रवासी लोग आते हैं, तो समझिये की वो लोग बुरी शिशु मृत्यु दर के साथ आते हैं। विशेष रूप से माघरेब से और काले अफ्रीका से, अब जिसमे अफ्रीका का अधिकांश भाग शामिल है। यहासे आने वाले लोगोंमे इस औसत का दर्जा बहुत ख़राब है। इन लोगों में पहले की बुरी प्रथाएँ अभी भी जारी है। जैसे की हम डॉक्टर के पास जाने से हिचकिचाते हैं। हम दवाखानों, आदि में नहीं जाते।
अनुबंध: हाँ। ठीक है। अब मैं रूस और यूक्रेन के इस संघर्ष के बारे में एक प्रश्न उठाना चाहूंगा और जिसमे शामिल है भारत का रुख और उसकी प्रतिक्रिया जिसकी तथाकथित पश्चिमी खेमे में काफी आलोचना की गई। तो आप इसे कैसे देखते हैं? यह संघर्ष, यूरोपीय संघ, नाटो, अमेरिका, फ्रांस और भारत का इस पर रुख?
जॉन-जोसेफ: सुनो, मैं भाग्यशाली था की लगभग दस वर्षों तक मुझे
पूर्वी देशों पर काम करने का मौका मिला। बर्लिन की दीवार गिरने के बाद मैं प्राग में रहता था और मैंने उस वक्त सभी पूर्वी यूरोपीय देशोंपर, मतलब एस्टोनिया
के तेलिन
से लेकर अल्बानिया के तिराना तक काम किया... ठीक है? और क्यूंकि मै इस क्षेत्र को पहले जानता नहीं था तो मैंने ४ वर्षों तक ख़ुद को इसके जुनून, इसकी कठिनाइयों के कहानियोंमे गोता लगाया। यह यूरोप का प्रदेश जिसे दो साम्राज्यों के बीच का, जिसे तथाकथित « मध्य यूरोप » के नाम से जाना जाता है। इसके बाद मैं रूस के मास्को गया जहाँ मैंने १९९४ से १९९७ तक पूर्व सोवियत संघ को कवर किया था। और विशेष रूप से मैंने यूक्रेन को कवर किया। तो आप देखिए, इस युद्ध पर मेरा एक दृष्टिकोण है जो की बेहद सटीक है, बहुत साफ़ है। तो ऐसा नहीं है की इसमें रूस को सही साबित करना है क्योंकि यह कोई ऐसी हुकूमत नहीं है जिसका कोई भविष्य है। लेकिन फिर भी, इस पुरे मामले में, शुरुआत से अमेरिकी हेरफेर है जो अभी भी जारी है। एक सैन्य प्रतिष्ठान के प्रभाव में जिसमे शामिल है सीआईए (CIA), एनएसए (NSA) जो की कम्युनिस्ट विरोधी है। लेकिन सबसे जरुरी... यक़ीनन आज रूस कोई कम्युनिस्ट देश नहीं है लेकिन यह प्रतिष्ठान अमेरिका समर्थक है, राष्ट्रवादी अंधराष्ट्रवादी, साम्राज्यवादी है, ठीक? और जिसने यह काम जारी रखा। बर्लिन की दीवार गिरने के बाद भी, कि रूस को ध्वस्त कर दिया जाए। जिंसने अपने लाभ को आगे बढ़ाया और इसे आगे बढाता ही गया। जिससे नाटो सैन्य की सीमाए रूस की सीमाओं पर जा कर पहुँच गयी और जाहिर है यह अस्वीकार्य है! लेकिन सभी के लिए यह अस्वीकार्य ही होगा। जैसे की संयुक्त राज्य अमेरिका में, मैं सोच भी नहीं सकता की क्यूबा में एक चीनी सैन्य अड्डा स्थापित किया जाएगा और इस पर संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयेगी! तो युद्ध का समापन, वह इस आक्रामकता में है। यह वह आक्रमकता है जिसे पश्चिम में यूरोपीय देशों द्वारा भी साझा किया गया है। जिस तरह से आज जब हम फ्रांस में देखते हैं एक अमीर वर्ग, और अहंकार के साथ रूस के प्रति उसका खुद को श्रेष्ठ समझने का तरीका। तो हम अच्छी तरह से इसे समझ सकते हैं कि वह कैसे अमेरिकी जाल में फंस गई। अर्थात्, उसने रूस की ओर आक्रामक होने के अमेरिकी रुख का समर्थन किया।
इसलिए हमें इस पर समाधान पता था। मै खुद राष्ट्रपति मित्तेरौ (MITTERAND) का सलाहकार था, उस समय जब मैं पूर्वी देशों में था और मित्तेरौ का विचार सरल था। उनका उद्देश्य रूस के साथ एक महान यूरोपीय संघ बनाना था और रूस की सीमा से लगे देशोंको बेअसर करना था। जैसे की फिनिश योजना की तरह उन्हें बेअसर करें। अर्थात् इसका मतलब है की ऐसे देश जो तटस्थ थे, जिस पर अमेरिकी हथियार संग्रहीत नहीं किया जा सके, जैसे की उस समय वारसॉ ब्लॉक के प्रस्ताव के तहत रूसी हथियार संग्रहीत करना संभव नहीं था। राष्ट्रपति मित्तेरौ के इस प्रस्ताव को उस वक्त अमेरिकियों द्वारा ख़ारिज किया गया, खास कर के अमेरिकी प्रतिष्ठान जो इसे नहीं चाहता था...
और इसलिए तब से युद्ध के बीज बोये गए हैं, हमने यूक्रेन के मैदान में एक अति-लोकतांत्रिक समूह का हेरफेर होते स्पष्ट रूप से देखा है जो शामिल होना चाहता था यूरोपीय संघ और नाटो में, यह समझे बिना कि भू-राजनीति में औरोंके के भी कुछ हित हैं जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। और इस प्रकार मिन्स्क के समझौते हुए, जिनका यूक्रेन द्वारा पालन नहीं किया गया। यह यूक्रेन है जिसने ओब्लास्ट (डोनेट्स्क) में युद्ध छेड़ा, अपने टैंकों वगैरह के साथ। जिन्होंने रूसियों को औचित्य दिया की वह अपने रूसी भाषी आबादी के समर्थन में इस युद्ध में उतरे और २०२२ में युद्ध छिड़ गया। क्योंकि रूसी पक्ष समझ गए की नाटो में यूक्रेन का प्रवेश जल्द ही होने जा रहा था और अगर यूक्रेन एक बार नाटो में आ गया तो फिर रूस कुछ कर नहीं पायेगा।
तो, यह भयानक है क्योंकि यह बाहुबल के तर्क हैं जिस कारण युद्ध शुरू हुआ और जहाँ दोनों तरफ़ से १,०००,००० ज्यादा लोग मरे। इस में बेहतर कोई नहीं है। हाँ और हम ठीक से देख नहीं सकते की अब हम कैसे इस जंजाल से बाहर निकलेंगे अगर यह रूस की जीत के माध्यम से ना हो तो। जो असल में वहा हो रहा है क्योंकि स्पष्टतः, संयुक्त राज्य अमेरिका सैकड़ों अरब डॉलर और शस्त्रात्र खर्च नहीं कर सकता और यूरोपीय लोगों की सेना की कोई क्षमता नहीं है। यह एक वास्तविकता है। वे वह लोग है जो यूक्रेनियन लोगोंको युद्ध छेड़ने के लिए कह रहे थे लेकिन युद्ध में हिस्सा लेने वाले यूरोपीय लोग नहीं हैं! मैंने एक भी फ्रांसीसी व्यक्ति को युद्ध के मैदान पर मरते नहीं देखा। तो, यह शर्म की बात है, यह दुखद है, यही विश्व की स्थिति है।
यह सिर्फ यूक्रेन में ही नहीं है। हम इसे इजराइल में गाजा के साथ स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। यहाँ भी तर्क लगभग एक जैसा है। ये पश्चिमी ब्लॉक की शक्तियों के तर्क हैं। तो अब जब ट्रम्प आ गए हैं, तो यह ब्लॉक टूट गया है, इसलिए हम देखेंगे कि क्या यही हाल जारी रहता है। लेकिन ताइवान के साथ चीनवाली भी यही स्थिति है। तो यह एक चिंता का समय है इसलिए क्योंकि यह विश्व का पुनः सैन्यीकरण है। समस्याओं को राजनीतिक समाधानों, शांतिपूर्ण माध्यम से हल करने के बजाय वे भयानक युद्धों द्वारा निपटाए जा रहे हैं।
अनुबंध: फिर भी आपने अभी जो कुछ कहा है और मेरे जैसा कोई व्यक्ति जो (युरोप में) बाहर से आता है और जो अब फ़्रांसीसी समाज में घुलमिल गया है, वो देखता है की आप जो कुछ भी कहते हैं वह सब मुख्यधारा के मीडिया में दर्शाया नहीं जाता। वहाँ हम देखते हैं कि यह रूस ही है, यह पुतिन है जो आक्रामक हैं, ऐसा वे कहते रहते हैं। लेकिन वो संयुक्त राज्य अमेरिका को नहीं देखते, जिसके दुनिया भर में ८०० से अधिक सैन्य अड्डे हैं, हालाँकि रूस के पास केवल १० है और जैसा कि आपने कहा हाल के वर्षों में नाटो ने व्यावहारिक रूप से रूस और चीन को घेर लिया है। अमेरिकियों का रक्षा बजट प्रति वर्ष १००० अरब डॉलर से अधिक है और मुझे लगता है की रूस के लिए यह १०० अरब डॉलर से अधिक नहीं है।
जॉन-जोसेफ: हाँ, मोटे तौर पर यह उन्ही आंकड़ों में है।
अनुबंध: अतः इन दोनों में कोई तुलना नहीं है। लेकिन इसमें एक और बात यह है कि फ्रांसीसी, जर्मन और यूरोपीय देशोंकी अर्थव्यवस्थाए रूस से आ रहे इस सस्ती गैस और तेल पर बहुत अधिक निर्भर थी जिसे युद्ध के कारण काट दिया गया है। और हम उसीको (रुसी पेट्रोल को) भारत से ३ - ४ गुना अधिक कीमत देकर अब खरीदते हैं। हम अब सऊदी अरब से (पेट्रोल) खरीदते हैं जो की जैसे लोकतंत्र का कोई आदर्श देश हो! हम अमेरिका से शेल गैस खरीदते हैं जो की बहुत प्रदूषणकारी है। तो ये सब चल रहा है। और उसके ऊपर हमारे यहाँ १५ % मुद्रास्फीति (महंगाई) भी थी और अब हमारे यहाँ यूरोपियन सेना का निर्माण करने के लिए अब ८०० अरब यूरो खर्च करने का प्रस्ताव रखा गया है। यूरोपीय सेना पहले से ही, जब कि हम संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ थे उस वक्त ही हम रूस से यह युद्ध हार चुके थे। इसलिए फ़्रांसीसी, शायद यूरोपीय भी लोग भी सोच रहे होंगे की यह सब पैसा कहाँ जाता है और क्यों कोई भी शांति और कूटनीति की बात नहीं करता?
जॉन-जोसेफ: हाँ, क्योंकि फ्रांसीसी प्रसारमाध्यम केंद्रित हैं। अब इस बात पर सर्वेक्षण सटीक हैं की यह केंद्रित है कुछ चुनिंदा व्यावसिक समुहोंके व्यक्तियोंके हाथों में। या फिर सार्वजनिक क्षेत्र में जो एक वैचारिक कबीले द्वारा स्वयं नियंत्रित था, जो सर्वविदित है। हम जिसे एकल-मार्गी सोच कहते हैं और जिसका मतलब यह देखने से इनकार करना है, कैसे कहें इसे, दुनिया की बहुलता को देखने से इनकार, एक अहंकार के साथ जिसमे समझा जाता है की पश्चिम सभी स्वतंत्रताओं की जननी है, जो सभ्यता का प्रतीक है। हम इसे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। इस तरह से कि भारत के सन्दर्भ में। भारत की छवि यहाँ बदल गई है। बहुत लंबे समय से भारत की छवि घृणित रही है और प्रसारमाध्यमों में इस बारे में काफी सुधार हुआ जब से भारत ने दासों (DASSAULT) विमान के लिए नकद भुगतान किया, है ना? तो अब जब भारत प्रमुख फ़्रांसीसी हथियार ख़रीदार है। ध्यान दें दो साल से भारत फ्रांस के हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है, ठीक है? बात सिर्फ राफेल की नहीं है। इसमें पनडुब्बियां वगैरह भी है और भारत दुनिया में हुए सारे अनुबंधों का आधा हिस्सा है। तो, वो प्रसार माध्यम जो फ्रांसीसी सैन्य या औद्योगिक क्षेत्रसे जुड़े हुए है। हम इसे सैन्य या औद्योगिक प्रतिष्ठान कहते हैं, जो बहुत पेरिजियन है, वर्साय का है। और अचानक अब भारत एक महान मित्र बन गया है! और यहां तक कि नरेंद्र मोदी जिन की दुनिया में काफी आलोचना की जाती है। खास करके लोकतांत्रिक बुद्धिजीवी लोगोंद्वारा, विशेष रूप से समाचार पत्र "ल मोंद" में, अब वहा उनकी आलोचना नहीं होती जैसा कि कुछ साल पहले वास्तव मे होती अगर भारत ने इतने हथियार नहीं खरीदे होते। तो, इससे पता चलता है कि फ्रांस और जो देश, जिसे हम कहेंगे मानवाधिकार का देश लेकिन जो एक आन्दोलन के स्तर पर... जो खुद को स्वतंत्रता की, मानव अधिकार की भूमि मानता है, वह अब वैसा बिल्कुल नहीं है। इसके अलावा, विश्व सूचि में, दुनिया में प्रसार माध्यमोंकी की स्वतंत्रता में फ्रांस अब २५ वें स्थान पर है और वह पिछले कई वर्षों में बस गिरता ही जा रहा है... इसका कारण मीडिया का केन्द्रीकरण कुछ चुनिंदा, बड़े अरबपति लोगों के हाथ में आ गया है जो संयोगवश श्री मैक्रों के मित्र हैं।
अनुबंध: मेरे पास आपके लिए दो छोटे अंतिम प्रश्न हैं... और इसके बाद मै आप से बिदाई लूँगा। आपने अभी जो कुछ भी कहा उसका मेरे लिए बहुत महत्व है... आपके विचार सुसंगत है, तार्किक है, विवेकपूर्ण है। लेकिन क्या आपके साथ कभी ऐसा होता है कि लोग आपको शायद क्रेमलिन का, पुतिन का कोई एजेंट मानते हो? आपको षड्यंत्र सिद्धांतकार कहते हो? आपके साथ ऐसा होता है या नहीं? और अगर होता है, तो आप इस पर कैसी प्रतिक्रिया करते हैं?
जॉन-जोसेफ: बेशक, वे सभी जो एक अलग राय रखते है, यहाँ मुझे बर्नी सैंडर्स (Bernie SANDERS) की याद आती है... वैसे, संयुक्त राज्य अमेरिका में भी यही बात है। हम सूचीबद्ध हैं वामपंथियों, आदर्शवादी की तरह। तो अभी तक मुझ पर किसीने पुतिन का एजेंट होने का आरोप नहीं लगाया। लेकिन, उदाहरण के लिए, चीन पर मेरी राय को बहुत बुरी तरह से देखा जाता है। ऐसा नहीं है कि मैं चीनी शासन का बचाव करता हूँ लेकिन मैं हमेशा समझाता हूँ कि मेरी समस्या यह नहीं है... मैं तो एक छोटा, एक विनम्र अर्थशास्त्री हूँ। मेरा काम पूरे विश्व का न्याय करना नहीं है। मेरा प्रयास रहता है ... मैं एक वैज्ञानिक हूं। मैं कुछ चिजोंको समझने की कोशिश कर रहा हूँ और विशेष रूप से इस तथ्य के बारें में की पिछले ३० वर्षों के अंतराल में चीन में उल्लेखनीय परिवर्तन आया है। उसके जीवन का स्तर वास्तविकता में अब कम से कम फ्रांसीसियों के समान हो गया है। इसमें कोई दो राय नहीं है। उनकी जीवन प्रत्याशा फ़्रांसीसी से आगे निकलने की प्रक्रिया में है। वैज्ञानिक और तकनीकी स्तर पर वो मजबूत है। आखिरकार उनकी ट्रेनें हमसे भी तेज़ चलती है। वह अधिक प्रभावशाली है। उनके यहाँ कई साल हो गए हैं की स्मार्टफोन का इस्तमाल भुगतान के साधन के रूप में किया जाता है। तो, जाहिर है, वह बुद्धिजीवी जो सोचते है कि यह आवश्यक है की चीन के बारे में बुरी बातें ही कहें क्योंकि उनका राजनीतिक शासन ख़राब है खैर, उन्हें ब्यालो (BOILLOT) को समझने में परेशानी होती है और वह मुझे स्वीकार नहीं करते है। और इसलिए हमें सामान्यतः, मीडिया में हाशिये पर धकेल दिया गया है।
उदाहरण के लिए, मैं बहुत नियमित रूप से मीडिया में अफ्रीका के बारे में बात करने के लिए अक्सर अतिथि बन कर बुलाया जाता था। उस दिन तक जब मैंने यह तर्क दिया कि फ्रांसीसी सेना को अफ्रीका के बाहर निकल जाना चाहिए क्योंकि यह नहीं चल सकता। और क्योंकि यह एक तरह का नवउपनिवेशवाद था और फिर संयोग से ऐसा हुआ कि अचानक से मीडिया में आने का मेरा अधिकार नहीं बचा! खैर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. इतिहास दूसरों के बिना भी रचा जाएगा। भारत के लिए भी यही बात है। मैं कोशिश करता हूँ कि भारत के प्रति एक संतुलित दृष्टिकोण दूँ ... ऐसा नहीं है की क्यूंकि मोदी सत्ता में है की अचानक हमें भारत को कूड़ेदान में फेंकना होगा और क्योंकि मोदी सत्ता में हैं इसलिए ऐसा नहीं है की हम समझने की कोशिश ना करे उन कारणों के बारे में जिस वजह से नरेन्द्र मोदी सत्ता में आये! आज क्यूँ यह दक्षिणपंथी शासन इतना शक्तिशाली है और मैं इसे समझाता हूँ... इसके पीछे वस्तुनिष्ठ कारण हैं... भारतीय सामाजिक लोकतंत्र, विशेष रूप से कांग्रेस पार्टी की सारी विश्वसनीयता खत्म हो गई है। इस छद्म वामपंथी पक्ष ने, जिसने भारत की सांस्कृतिक विशेषताओं का, भारतीय सभ्यता का सम्मान नहीं किया... क्योंकि बड़ी संख्या में कांग्रेस पार्टी के नेता, उनमें भारतीयता का कुछ भी प्रमाण नहीं है। यह एक वास्तविकता है.... ऐसा सोनिया गांधी की वजह से नहीं है जो एक इटैलियन है। लेकिन में राहुल गांधी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ। इस आदमी का सिर भारत के अलावा कहीं और है... वह अपनी छुट्टियाँ थाईलैंड में बिताने जाते हैं, उन्होंने कैम्ब्रिज आदि में अध्ययन किया है। लेकिन भारत अपनी पहचान के संकट से जूझ रहा है। बहुत मजबूत। वह अपनी सांस्कृतिक पहचान खोजना चाहती है और यह दक्षिणपंथी शासन ही एकमात्र है जो एक विकल्प पेश करने में कामयाब रहा।
और यह बात संयुक्त राज्य अमेरिका में ट्रम्प के साथ भी हुई है और मुझे लगता है कि वही बात यूरोप में घटित होगी। हर जगह, हर जगह! क्योंकि हम यूरोपीय लोगों को देखते हैं... फ्रांस, जर्मनी आदि में इस वैश्विकतावादी, वैश्विकतावादी दृष्टि को देख रहे है जो सोचती है की प्रगति के मूल्य मतलब पुरुष और महिला लिंग ऐसा कुछ नहीं है। मै जो भी करना चाहता हूँ वो करने का मुझे अधिकार है... महत्वपूर्ण बात यह है...बस मै जो चाहता हूं... कैसे कहें, अमर्याद स्वतंत्रता, जो भी मैं चाहता हूँ मुझे करने का अधिकार है! नहीं, जीवन में ऐसा नहीं है... हमें सह-अस्तित्व के नियमों की ज़रूरत है। यही कारण है कि भारत में मुझे अभी भी बहुत रुचि है क्योंकि मेरे लिए यह एक प्रयोगशाला है, वैश्विक स्तर पर क्या हो रहा है इसकी।
अनुबंध: हमने देखा है की अफ्रीका और वहा फ्रांसीसी कूटनीति पर आपकी टिप्पणियाँ सच साबित हुई है, क्योंकि फ्रांस को इस दौरान वहा कई असफलताएं मिली हैं।
श्री मोदी और उनकी नीतियों के बारे में,व्यक्तिगत रूप से मेरे पास असहमति के कई बिंदु हैं लेकिन मैं कहूंगा कि यूक्रेन और रूस के संघर्ष के संबंध में उनका रुख और उनकी राजनीती को समझा जा सकता है और मैं कहूंगा कि यह उचित भी है।
अब आपसे मेरा आखिरी सवाल है... आपने हमें जो बताया... खास कर फ्रांस में, यूरोप में, भारत में, यूरोपीय संघ में जो भी चल रहा है, कई अलग अलग पहलुओं पर, यह काफी निराशाजनक चित्र है। चाहे वह आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और अन्य विषय हो। लेकिन क्या आशा है? क्या यहाँ लोगों के लिए कोई आशा है? फ्रांसीसी, भारतीय या वैश्विक?
जॉन-जोसेफ: हाँ, बिल्कुल। हम... जीवन के जैसे चक्र हैं, दोलन है, है ना? तो हम वहाँ हैं... यह ऐतिहासिक चक्र का एक चरण है कम से कम हम यह यूरोप के लिए कहेंगे और फ्रांस के लिए जो एक बहुत कठिन चरण जहाँ यह यूरोप के प्रति वैश्विक प्रतियोगिता है। आपको एक उदाहरण देता हूँ, दुसरे महायुद्ध के बाद यूरोप की आबादी विश्व की ३०% जनसंख्या का हिस्सा थी, उस वक्त इसकी आबादी चीन से भी अधिक थी। आज यह केवल ७% है! विश्व की जनसंख्या का सिर्फ ७%! उसकी औसत आयु लगभग ६० वर्ष की हो गई हैं... इसलिए अब वह कोई बड़ी ताकत नहीं है और वह इसे बुरी तरह से लेती है। वह इसे बहुत बुरी तरह ले रही है। आर्थिक और वैज्ञानिक प्रतिस्पर्धात्मकता में वह हार रही है और इसलिए यह प्रवासियों पर अधिकाधिक निर्भर करता है, जो जनसंख्या के संबंध में एक समस्या उत्पन्न करते है। हम एक काले रंग के आदमी में तुरंत एक हीन व्यक्ति को देख लेते हैं और अचानक हमें पता चलता है कि इसके विपरीत हो रहा है... तो, यूरोप बुरे दौर से गुज़र रहा है। और निश्चित रूप से भारत के लिए, यह एक ऐसी आबादी है जो मुश्किलोंपर समाधान खोजने के लिए कोशिश करेगी... इस ऐतिहासिक संकट के प्रति... और यूरोप पुनः उसी स्थिति में लौटेगा, जहा हर किसी की तरह, न अधिक, न कम, न ऊपर, शायद थोडा नीचे ही... इसके अलावा क्योंकि हवा का रुख अब उन्हें ज्यादा दूर तक नहीं ले जाता। इसलिए, लोग ही हैं जो इतिहास बनाते हैं। प्रसारमाध्यमोंकी की बात चाहे जो भी हो। महत्वपूर्ण यह है कि मूलतः, जमीनपर क्या हो रहा है।
अनुबंध: इस आदान-प्रदान के लिए बहुत बहुत धन्यवाद! धन्यवाद, श्रीमान ब्यालो, आपकी स्पष्टता के लिए, तर्कसंगतता के लिए और साहस भरे आपके विचारोंके लिए! मैं इस सबकी बहुत सराहना करता हूँ और मुझे पूरा विश्वास है कि हमारे श्रोता भी उनकी सराहना करेंगे। तो, जल्द ही मिलते हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद।
जॉन-जोसेफ: शुक्रिया। जल्द ही मिलते हैं। अलविदा।
जॉन-जोसेफ ब्वालो
जॉन-जोसेफ ब्वालो आईआरआईएस (IRIS -Institute for International and Strategic Affairs), में एक सहयोगी शोधकर्ता हैं। वे भारतीय अर्थव्यवस्था और दुनिया की उभरती हुई, विशेष रूप से चीन-भारत-अफ्रीका त्रिकोण, जिसे उभरती हुई नई वैश्विक अर्थव्यवस्था के संरचनात्मक ध्रुव के रूप में देखा जाता है, के विशेषज्ञ हैं।
जॉन-जोसेफ ब्वालो ने अर्थशास्त्र और सामाजिक विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। इकोल नोरमाल सुपेरियर (École Normale Supérieure - ENS) में अध्यापन किया है और सीईपीआईआई (CEPII) में एशिया पर एक सहयोगी शोधकर्ता के रूप में काम किया है, जहाँ उन्होंने भारतीय विकास मॉडल पर एक डॉक्टरेट थीसिस पर काम किया है।
वह यूरो-इंडिया ग्रुप – ईआईईबीज (Euro-India Business Group - EIEBG), के सह-संस्थापक और साइक्लोप (CYCLOPE)विशेषज्ञ समूह एवं आईएसईजी (ISEG)वैज्ञानिक परिषद के सदस्य हैं। वह नियमित रूप से कई ऑनलाइन साइटों पर योगदान देते हैं और अल्टरनेटिव्स इकोनॉमिक्स (Alternatives Économiques) वेबसाइट के लिए एक मासिक कॉलम लिखते हैं।
वह २० से अधिक पुस्तकों के लेखक हैं जिनमें शामिल हैं “Ancient
India at the bedside of our politicians” (éditions du Félin, Paris २०१७), “The
Economy of India” (La Découverte, 3rd ed. २०१६),
“Africa for Dummies” (First editions २०१५), “India for Dummies” (First editions २०१४), “The
Innovation Jugaad” (translation and adaptation, Diateino २०१३) and
Chindiafrique - China, India and Africa will make the world of tomorrow (Odile
Jacob २०१३). उनकी नवीनतम पुस्तक, Utopias made in the world, the wise
man and the economist अप्रैल २०२१ में ओडिले जैकब द्वारा प्रकाशित किया गया था।
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